Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 312
________________ आभियोग्य] २०३, जैन-लक्षणावली [प्राभ्यन्तर प्रात्मभूतहेतु प्राभियोग्य कहलाते हैं। उनसे सम्बन्धित भावना कार्यासेवनमाभोगः । (प्राव. ह. वृ. मल. हे. टि. का नाम पाभियोगिकी या प्राभियोगी है। पृ.१०)। प्राभियोग्य-१. आभियोग्या दाससमाना वाहना- ३ जान करके भी अकार्य के सेवन करने को प्राभोग दिकर्मणि प्रवृत्ताः। (स. सि. ४-४)। २. पाभि- कहते हैं। योग्या दासस्थानीयाः। (त. भा. ४-४) । ३. प्रा. प्राभोगनिर्वतित कोप-यदा परस्यापराधं सम्यभियोग्या दाससमानाः । यथेह दासा वाहनादिव्यापार गवबुध्य कोपकारणं च व्यवहारतः पुष्टमवलम्ब्य कुर्वन्ति तथा तत्राभियोग्या वाहनादिभावेनोपकुर्वन्ति। नान्यथाऽस्य शिक्षोपजायते इत्याभोग्य कोपं विधत्ते ग्राभिमुख्येन योगोऽभियोगः, अभियोगे भवा आभि- तदा स कोप आभोगनिर्वतितः। (प्रज्ञाप. मलय. योग्याः। xxxअथवा अभियोगे साधवः प्राभि- वृ. १४-१६०, पृ. २६१)। योग्याः, अभियोगमहन्तीति वा। (त. वा. ४, ४, दूसरे के अपराध को भलीभांति जान करके तथा ६)। ४. वाहनादिभावेनाभिमुख्येन योगोऽभियोग- व्यवहार से पुष्ट कोप के कारण का प्राश्रय लेकर स्तत्र भवा अभियोग्यास्त एव आभियोग्याः इति । 'अन्य प्रकार से इसे शिक्षा नहीं मिल सकती है' यह xxx अथवा अभियोगे साधवः आभियोग्याः, देखकर जब क्रोध करता है तब उसके इस क्रोध को अभियोगमहन्तीति वा आभियोग्यास्ते च दाससमा- प्राभोगनिर्वतित कोप कहते हैं। नाः। (त. श्लो. ४-४) । ५. अभियुज्यन्त इत्याभि- प्राभोगनिर्वतिताहार–प्राभोगनमाभोगः पालोयोग्याः वाहनादौ कुत्सिते कर्मणि नियुज्यमानाः, चनम्, अभिसन्धिरित्यर्थः । प्राभोगेन निर्वर्तितः वाहनदेवा इत्यर्थः । (जयध. पत्र ७६४) । ६. भवे- उत्पादित प्राभोगनिर्वर्तितः, आहारयामीतीच्छापूर्व युराभियोग्याख्या दासकर्मकरोपमाः ।। (म. पु. २२, निर्मापितः इति यावत् । (प्रज्ञाप. मलय. व. २८, २९)। ७. दासप्राया भाभियोग्याः । (त्रि. श. पु. ३०४, पृ. ५००)। च. २, ३, ७७४)। ८. पा समन्तादभियुज्यन्ते अभिप्रायपूर्वक बनवाया गया पाहार प्राभोगनिर्वप्रेष्यकर्मणि व्यापार्यन्त इत्याभियोग्या दासप्रायाः। तिताहार है । यह नारकियों का पाहार है। (संग्रहणी दे. वृ. १; बृहत्सं. मलय. वृ. २)। प्राभोगबकुश-१. संचित्यकारी प्राभोगबकुशः । ६. अभियोगे कर्मणि भवा आभियोग्या दासकर्मकर- (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-४६) । २. द्विविध-(शरीरो. कल्पाः । (त. वृत्ति श्रुत. ४-४)। पकरण-) भूषणमकृत्यमित्येवंभूतं ज्ञानम्, तत्प्रधानो १ सवारी प्रादि में काम आने वाले दास समान बकुश आभोगबकुशः । (धर्मसं. मान. स्वो. वृ. देवों को प्राभियोग्य कहते हैं। ३-५६, पृ. १५२)। ३. प्राभोगः साधूनामकृत्यआभियोग्यभावना-देखो आभियोगिकी। १. मंता- मेतच्छरीरोपकरणविभूषणमित्येवंभूतं ज्ञानम् । तत्प्रभिप्रोग-कोदुग-भूदीयम्मं पउंजदे जो हु । इड्ढि-रस- धानो बकुश प्राभोगबकुशः । (प्रव. सारो. वृ. सादहे, अभियोगं भावणं कुणइ ॥ (भ. प्रा. ३, ७२४) । २८२) । २. जे भदिकम्म-मंताभियोग-कोदहलाइ- १ जो साधु विचारपूर्वक करता है-शरीर व उपसंजुत्ता। जणवण्णे य पअट्टा वाहणदेवेसु ते होंति ॥ करणों को विभूषित रखता है-उसे प्राभोगबकुश (ति. प. ३-२०३)। कहते हैं। १ ऋद्धि, रस और सात गारव के हेतुभूत मंत्राभियोग प्राभ्यन्तर आत्मभूतहेतु-तन्निमित्तो (द्रव्ययोग(भूतावेशकरण), कुतूहलोपदर्शन (अकालवृष्टि प्रादि निमित्तो) भावयोगो वीर्यान्तराय-ज्ञान-दर्शनावरणदर्शन) और भूतिकर्म का करने वाला अभियोग्य- क्षय-क्षयोपशमनिमित्त आत्मनः प्रसाद भावना को करता है। इत्याख्यामहति । (त. वा. २, ८, १)। प्राभोग-१. आभोगो उवयोगो। (प्रत्या. स्व. गा. द्रव्ययोगनिमित्तक भावयोग और वीर्यान्तराय तथा ५५)। २. पाभोगनमाभोगः, 'भुज-पालनाभ्यव- ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्म के क्षय-क्षयोपशमहारयोः' मर्यादयाऽभिविधिना वा भोगनं पालनमा- निमित्तक प्रात्मा के प्रसाद को प्राभ्यन्तर आत्मभत भोगः । (प्रोवनि. वृ. ४, पृ. २६)। ३. ज्ञात्वाप्य- हेतु कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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