Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 340
________________ इच्छाविभाषण] २३१, जैन-लक्षणावली [इत्वरपरिगृहीतागमन वन्दनाद्यनुष्ठानमिच्छाप्राधान्यादिच्छायोगः । (शा- एवम्भूताभिधाने कि केन संगतम् ? इत्यसत्, यस्मात् स्त्रवा. टी. ६-२७)। इत्थम्भूतस्यैव इदम् ‘एवम्भतः' इति नामान्तरम् । ३ पागम का ज्ञाता होकर भी प्रमादवश कालादि । (न्यायकु. ५-४४, पृ. ६३६) । को विकलता से स्वेच्छापूर्वक चैत्यवन्दना प्रादि १क्रिया के प्राश्रयसे वस्तुस्वरूप के प्रतिपादन करने क्रियाओं के करने को इच्छायोग कहते हैं। वाले नय को इत्थंभूत (एवम्भूत) नय कहते हैं। इच्छाविभाषण-१. दीनाद्यन्नाद्यदानेन पूण्यं नन जैसे-गमनक्रियापरिणत गाय को ही गौ भवेदिति । पृष्टेऽभ्युपगमान्नार्थं भवेदिच्छाविभाष- इत्थंलक्षणसंस्थान- १. वृत्त-त्र्यस्र-चतुरस्रायतणम् ॥ (प्राचा. सा. ८-४०)। २. कश्चित् पृच्छति परिमण्डलादीनामित्थंलक्षणम् । (स. सि. ५-२४;त. हे मुने, दीन-हीनादीनामन्नादिदानेन पुण्यं भवेन्न वा सुखबो. वृ. ५-२४)। २. वृत्तं त्र्यस्र चतुरस्रमायतं भवेत् ? मुनिरन्नार्थं वदति पुण्यं भवेदेवेत्यभ्युपगम । परिमण्डलमित्येबमादि संस्थानमित्थंलक्षणम् । (त. इच्छाविभाषणम् । (भा. प्रा. टी. ६६)। वा. ५, २४, १३)। ३. संस्थानमित्थंलक्षणं चतुर१ दीन-हीन जनों को अन्नादि के देने से क्या पुण्य स्रादिकम। (त. श्लो. ५-२४)। ४. संस्थानं होता है, इस प्रकार किसी के पूछने पर अन्न के कलशादीनामित्थंलक्षणमिष्यते । (त. सा. ६-६३)। लिये होता है ऐसा स्वीकारात्मक वचन कहना, यह ५. इत्थंलक्षणं संस्थानं त्रिकोण-चतु:कोण-दीर्घ-परिएक इच्छाविभाषण नाम का उत्पादन दोष माना मण्डलादि । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२४)। जाता है। गोल, त्रिकोण एवं चतष्कोण प्रादि विविध इच्छावृत्ति-पूर्वात्तानशनातापयोगोपकरणादिषु । प्राकारों को इत्थंलक्षणसंस्थान कहते हैं। सेच्छावृत्तिर्गणीच्छानुवृत्तिर्या विनयास्पदा ॥ (प्राचा. इत्वर अनशन- १. न अशनमनशनम्, आहारसा. २-९)। त्याग इत्यर्थः । तत्पुनद्विधा इत्वरं यावत्कथिकं च । पूर्व में गृहीत अनशन व प्रातापनयोग आदि करने के तत्रत्वरं परमितकालम्, तत्पुनश्चरमतीर्थकृत्तीर्थे चतुसमय प्राचार्य की इच्छा के अनुसार सविनय पाच- र्थादिषण्मासान्तम् । (दशवै. नि. हरि. वृ. १, १, रण करने को इच्छावृत्ति कहते हैं। ४७, पृ. २६)। २. तत्रत्वरं नमस्कारसहितादि । इतर मैत्री-इतरः प्रतिपन्नः पूर्वपुरुषप्रतिपन्नेषु xxx चतुर्थभक्तादिषण्मासपर्यवसानमित्वरमनवा स्वजनसम्बन्धनिरपेक्षा या मैत्री सा तृतीया। शनं भगवतः महावीरस्य तीर्थे । (त. भा. सिद्ध. व. षोडशक वृ. १३-६)। ९-१६)। कुटुम्बी जन से भिन्न इतर जनों में जिन्हें स्वयं १परमित काल तक जो आहार का त्याग किया स्वीकार किया गया है या जो पूर्व पुरुषों द्वारा स्वी- जाता है उसे इत्वर अनशन कहते हैं। वह महाकृत हैं-स्वजन सम्बन्ध की अपेक्षा न कर मैत्रीभाव वीर के तीर्थ में एक से लेकर छह मास तक के रखने को इतर मैत्री कहते हैं। यह मैत्रीभावना अभीष्ट है। के चार भेदों में तीसरा है। इत्वर-परिगृहीतागमन - १. इत्वरपरिगृहीताइतरेतराभाव-स्वरूपान्तरात् स्वरूपव्यावृत्तिरित- गमनं स्तोककालपरिगृहीतागमनम्, भाटीप्रदानेन रेतराभावः। (प्र. न. त. ३-६३) । कियन्तमपि कालं स्ववशीकृतवेश्यामैथुनासेवनमिस्वरूपान्तर से स्वरूप की व्यावत्ति को इतरेतरा- त्यर्थः। (श्रा. प्र. टी. २७३)। २. तत्वरभाव कहते हैं। कालपरिगृहीता काल-शब्दलोपादित्वरपरिगृहीता, इत्थंभूत (एवम्भूत नय)-१.xxx इत्थं- भाटिप्रदानेन कियन्तमपि कालं दिवस-मासादिकं भूतः क्रियाश्रयः। (लघीय. ५-४४; प्रमाणसं. स्ववशीकृतेत्यर्थः, तस्या गमनम् अभिगमो मैथु८३)। २. इत्थंभूतनयः क्रियार्थवचनः स्यात्कार- नासेवना इत्वरपरिगृहीतागमनम् । (प्राव. वृ. ६, मुद्राङ्कितः । (सिद्धिवि. ११-३१, पृ. ७३६ पं.)। पृ. ८२५) । ३. इत्थंभूतः क्रियाशब्दभेदात् अर्थभेदकृत इति । १ द्रव्य देकर कुछ काल के लिए अपने अधीन करके xxx ननु च इत्थंभूतस्वरूपप्ररूपणे प्रस्तुते व्यभिचारिणी (वेश्या) स्त्री के साथ विषय सेवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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