Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 344
________________ इन्द्रियजय] २३५, जैन-लक्षणावली [इन्द्रियप्रणिधि (त. वृलि श्रुत. २-१८)। १६. इदुः स्यात् पर- निर्वतितेन वीर्येण तद्भावनयनशक्तिः । (स्थाना. मैश्वर्ये धातोरस्य प्रयोगतः । इन्दनात् परमैश्वर्या- अभय. व. २, १, ७३, पृ. ५०)। ७. यया धातुदिन्द्र आत्माभिधीयते ॥ तस्य लिङ्गं तेन सृष्टमिती- रूपतया परिणमितमाहार मिन्द्रियरूपतया परिणमन्द्रियमुदीर्यते ॥ (लोकप्र. ३-४६४-६५)। यति सा इन्द्रियपर्याप्तिः । (पंचसं. मलय. व. १-५%3 १ परम ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले प्रात्मा को इन्द्र नन्दी. मलय. वृ. १३, पृ. १०५; षष्ठ कर्म. मलय. और उस इन्द्र के लिङ्गः या चिह्न को इन्द्रिय कहते ७.६, पृ. १२६, कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ४८, पृ.५५, हैं। अथवा जो जीव को अर्थ की उपलब्धि में ५६; जीवाजी. मलय. वृ.१-१२, प्रज्ञाप, भलय. निमित्त होता है उसे इन्द्रिय कहते हैं। अथवा जो व.१-१२, पृ. २५; सप्ततिका मलय. वृ. ५, पृ. सूक्ष्म प्रात्मा के सद्भाव की सिद्धि का हेतु है उसे १५३, षडशी. मलय. व. ३, पृ. १२४; षडशी. इन्द्रिय कहते हैं । अथवा इन्द्र नाम नामकर्म का है, दे. स्वो. बृ. २, पृ. ११७)। ८. यया तु धातुभूतउसके द्वारा निर्मित स्पर्शनादि को इन्द्रिय कहा माहारमिन्द्रियतया परिणमयति सेन्द्रियपर्याप्ति:। जाता है। (कर्मस्त. गो. व. १०, पृ. ८७; शतक. मल. हेम. इन्द्रियजय--१. अरिषडवर्गत्यागेनाविरुद्धार्थप्रति- व. ३७-३८, पृ. ५०)। ६. यया धातुरूपतया पत्त्येन्द्रियजयः । (धर्मबि. १-१५)। २. विषया- परिणमितादाहारादिन्द्रियप्रायोग्यद्रव्याण्युपादायक-द्विटवीषु स्वच्छन्दप्रधावमानेन्द्रियगजानां ज्ञान-वैराग्यो- त्र्यादीन्द्रियरूपतया परिणमय्य स्पर्शादिविषयपवासाद्यंकूशाकर्षणेन वशीकरणमिन्द्रि यजयः । (चा. परिज्ञानसमर्थो भवति सा इन्द्रियपर्याप्तिः। (वहत्क. सा. प. ४४)। ३. इन्द्रियाणां श्रोत्रादीन्द्रियाणां क्षेम. व. १११२)। १०. योग्यदेशस्थितस्पर्शाजयः अत्यन्तासक्तिपरिहारेण स्व-स्वविकारनिरोधः। दिविषयग्रहणव्यापारविशिष्टस्यात्मनः पर्याप्तनाम(धर्मसं. मान. स्वो. वृ. १-६, पृ. ६)। कर्मोदयवशात् स्पर्शनादिद्रव्येन्द्रियरूपेण विवक्षित२ विषयरूप वन में स्वच्छन्द दौड़ने वाले इन्द्रियरूप पुद्गलस्कन्धान् परिणमयितुं शक्तिनिष्पत्तिरिन्द्रियमदोन्मत्त गजों के ज्ञान, वैराग्य एवं उपवासादिरूप पर्याप्तिः। (गो. जी. म. प्र. टी. ११६)। ११. इन्द्रिअंकश के प्रहारों द्वारा वश में करने को इन्द्रियजय यपर्याप्ति:- यया धातुरूपतया परिणमितादाहाराकहते हैं। देकस्य द्वयोस्त्रयाणां चतुर्णा पञ्चानां वा इन्द्रियाणां इन्द्रियपर्याप्ति-१. पंचण्हमिदियाणं जोग्गा पो- योग्यान् पुद्गलानादाय स्व-स्वेन्द्रियरूपतया परिग्गला विचिणि अणाभोगणिव्वत्तितवीरियकरणेण णमय्य च स्वं स्वं विषयं परिज्ञातुं प्रभुर्भवति । तब्भावापायणसत्ती इंदियपज्जत्ती। (नन्दी. चू. पृ. (संग्रहणी दे. वृ. २६८)। १२. आवरण-वीर्यान्त१५)। २. त्वगादीन्द्रियनिर्वर्तनक्रियापरिसमाप्ति- रायक्षयोपशमविभितात्मनो योग्यदेशावस्थितरूपारिन्द्रियपर्याप्तिः । (त. भा. ८-१२; नन्दी. हरि. दिविषयग्रहणव्यापारे शक्तिनिष्पत्तिर्जातिनामकर्मोव. प. ४४)। ३. योग्यदेशस्थितरूपादिविशिष्टार्थ- दयजनितेन्द्रियपर्याप्तिः। (गो. जी. जी. प्र. टी. ग्रहणशक्त्युत्पत्तेनिमित्तपुद्गलप्रचयावाप्तिरिन्द्रियपर्या- ११६; कातिके. टी. १३४)। प्तिः। (धव. पु. १, पृ. २५५); सच्छेसु पोग्गलेसु ३ योग्य देश में स्थित रूपादि से युक्त पदार्थों के मिलिदेसु तब्बलेण बज्झत्थगहणसत्तीए समुप्पत्ती ग्रहण करनेरूप शक्ति की उत्पत्ति के निमित्तइंदियपज्जत्ती णाम । (धव. पु. १४, पृ. ५२७)। भूत पुद्गलप्रचय की प्राप्ति को इन्द्रियपर्याप्ति कहते ४. इन्द्रियकरण निष्पत्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः (त. भा. हैं। ७ जिस शक्ति के द्वारा धातुरूप से परिसिद्ध. व. ८-१२, पृ. १६०); तत्र च स्वरूपनिर्व- णत आहार इन्द्रियों के प्राकार रूप से परिणत हो, निक्रियापरिसमाप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः । (त. भा. उसे इन्द्रियपर्याप्ति कहते हैं। सिद्ध. वृ. ८-१२, पृ. १६१)। ५. योग्यदेशस्थित- इन्द्रियप्ररिणधि-सद्देसु अ रूवेसु अ गंधेसु रसेसू शिष्टार्थग्रहणशक्तेनिष्पत्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः। तह य फासेसु । न वि रज्जइ न वि दुस्सइ एसा खलु (मला. व. १२-१६६)। ६. इन्द्रियपर्याप्तिः पञ्चा- इंदियप्पणिही ।। (दशवै. नि. २६५) । नामिन्द्रियाणां योग्यान् पुदगलान् गृहीत्वाऽनाभोग- पांचों इन्द्रियों के शब्दादिरूप मनोज्ञ और अमनोज्ञ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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