Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 349
________________ ईर्ष्या] २४०, जैन-लक्षणावली [ईषत्प्राग्भार भूमिको देखते हुए जन्तुओं को पीड़ा न पहुंचा कर ईसरकयं होदि । (गो. क. ८८०)। २. जीवो गमन करना, इसका नाम ईर्यासमिति है। अण्णाणी खलु असमत्थो तस्स जं सुहं दुक्खं । सग्गं ईर्ष्या-१. परसम्पदामसहनमीा । (जीतक. च. णिरयं गमणं सव्वं ईसरकयं होदि । (अंगप. २, वि. व्या. पृ. ३८, ५-१६)। २. ईर्ष्या परगुण- २०)। विमवाद्यक्षमा। (त. भा. हरि व सिद्ध. व. ६-१)। यह प्रज्ञ प्राणी अपने सुख और दुख को भोगने के ३. ईर्ष्या प्रतिपक्षाभ्युदयजनितो मत्सरविशेषः। लिए स्वयं असमर्थ होकर ईश्वर के प्राधीन है, (शास्त्रवा. टी. १-२)। उसकी प्रेरणा से ही वह स्वर्ग को या नरक को १ दूसरों के उत्कर्ष को न सह सकना, इसका नाम जाता है। इस प्रकार की मान्यता को ईश्वरवाद ईर्ष्या है। कहते हैं। ईशित्व-१. णिस्सेसाण पहुत्तं जगाण ईसत्तणाम ईषत्प्राग्भार-देखो अष्टम पृथ्वी । १. सव्वट्ठरिद्धी सा। (ति. प. ४-१०३०)। २. त्रैलोक्यस्य सिद्धिइंदयकेदणदंडादु उवरि गंतूणं । बारसजोयणप्रभुतेशित्वम् । (त. वा. ३-३६; चा. सा. पृ. ९८; मेत्तं अट्ठमिया चिट्ठदे पुढवी ॥ पुव्वावरेण तीए प्रा. योगभ. टी. ६)। ३. सव्वेसि जीवाणं गाम उवरिम-हेट्ठिम-तलेसु पत्तेक्कं । वासो हवेदि एक्का णयर-खेडादीणं च भुंजणसत्ती समुप्पण्णा ईसित्तं रज्जू रूवेण परिहीणा ।। उत्तर-दक्षिणभाए दीहा णाम । (धव. पु. ६, पृ. ७६)। ४. ईशित्वं त्रैलो- किंचूणसत्तरज्जूयो। वेत्तासणसंठाणा सा पुढवी क्यस्य प्रभुता तीर्थकर-त्रिदशेश्वर-ऋद्धिविकरणम । अट्ठजोयण बहला । जुत्ता घणोवहि-घणाणिल(योगशा. स्वो. विव. १-८; प्रव. सारो. वृ. तणुवादेहिं तिहि समीरेहिं । जोयणबीससहस्सं १४९५)। पमाणबहलेहि पत्तेक्कं ॥ एदाए बहुमज्झे खेत्तं १ समस्त जगत् के ऊपर प्रभाव डालनेवाली शक्ति णामेण ईसिपब्भारं । अज्जुणसुवण्णसरिसं णाणारयको ईशित्व ऋद्धि कहते हैं। णेहिं परिपुण्णं ।। (ति. प. ८, ६५२-६५६) । २. ईश्वर-१. ईश्वरो युवराजा माण्डलिकोऽमा- अत्थीसिप्पन्भारोवल क्खियं मणयलोगपरिमाणं । त्यश्च । अन्ये तु व्याचक्षते-अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्त लोगग्गनभोभागो सिद्धिक्खेत्तं जिणखाद।। (विशेषा. ईश्वरः । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. १६) । ३८२०) । ३. अट्ठमपुढवी सत्तरज्जुअायदा एगरज्जु२. येनाप्तं परमैश्वर्यं परानन्दसुखास्पदम् । बोधरूपं रुंदा अट्टजोयणबाहल्ला सप्तमभागाहियएयजोयण कृतार्थोऽसावीश्वरः पटभिः स्मतः ॥ (आप्तस्व. बाहल्लं जगपदरं होदि । (धव. पु. ४, प. २३) । ३. केवलज्ञानादिगुणश्वर्ययुक्तस्य सतो देवेन्द्रा- ४. उपरिष्टात्पुनः सर्वकल्पविमानान्यतीत्यार्धतृतीयदयोऽपि तत्पदाभिलाषिणः यस्याज्ञां कुर्वन्ति स द्वीपविष्कम्भायामोत्तानकछत्राकृतिरीषत्प्राग्भारा । ईश्वराभिधानो भवति । (बृ. द्रव्यसं. वृ. १४)। (त. भा. सिद्ध. वृ. ३-१) । ५. ईषत्-अल्पो ४. ईश्वरः अणिमाद्यैश्वर्ययुक्तः । (प्रज्ञाप. मलय. योजनाष्टकबाहल्य - पञ्चचत्वारिंशल्लक्षविष्कम्भात् वृ. १६-२०५, पृ. ३३०) । ५. ईश्वरो भोगिकादि, प्राग्भारः पुद्गलनिचयो यस्याः सेषत्प्राग्भाराऽष्टमअणिमाद्यष्टविधश्वर्ययुक्त ईश्वर इत्येके । (जीवाजी. पृथिवी। (स्थाना. अभय. वृ. ३, १, १४८, पृ. मलय. वृ. ३, २, १४७, पृ. २८०)। ११९)। ६. तिहुबणसिहरेण मही वित्थारे अट्ठजोयणु१ यवराज, माण्डलिक और अमात्य को ईश्वर दयथिरे । धवलच्छत्तायारे मणोहरे ईसिपब्भारे ।। कहा जाता है । मतान्तर से जो अणिमादिरूप पाठ (क्ष. सा. ६४५) । प्रकार के ऐश्वर्य से सम्पन्न है उसे ईश्वर कहते हैं। १ सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक के ध्वजदण्ड से ऊपर बारह २ जिसने कृतकृत्य होकर निराकुल सुख के कारण- योजन जाकर पाठवीं पृथिवी अवस्थित है। वह भूत केवलज्ञान रूप उत्कृष्ट विभूति को प्राप्त कर पूर्व-पश्चिम में रूप से कम एक राजु चौड़ी, उत्तरलिया है, उस परमात्मा को ईश्वर कहते हैं। दक्षिण में कुछ कम सात राजु लम्बी और पाठ ईश्वरवाद-१. अण्णाणी हु अणीसो अप्पा तस्स योजन मोटी है। प्राकार उसका बेत के प्रासन य सुहं च दुक्खं च । सगं णिरयं गमणं सव्वं जैसा है। तीन वातवलयों से युक्त उस पृथिवी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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