Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 338
________________ इक्ष्वाकु] २२६, जैन-लक्षणावली [इच्छा न्तराद् गृहाद् वा यतिनिमित्तमानीतं तदाहृतम् । २ अपने अभिप्राय को इंगित या इंगिनी कहा (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. २०, पृ. ४६) । जाता है। १ गृहादि से साधु की वसति में लाकर जो दिया इङ्गिनी-अनशन-इङ्गिनी श्रुतविहितः क्रियाविजाता है वह पाहृत नामक उद्गम दोष से दूषित शेषस्तद्विशिष्टमनशनमिङ्गनी । अस्य प्रतिपत्ता तेनैव होता है। क्रमेणायुषः परिहाणिमवबुध्य तथाविध एव स्थण्डिले इक्ष्वाकु-१. पाकन्तीक्षुरसं प्रीत्या बाहुल्येन त्वयि एकाकी कृतचतुर्विधाहारपत्याख्यानश्छायात् उष्णप्रभो। प्रजाः प्रभो यतस्तस्मादिक्ष्वाकुरिति कीर्त्यसे । मुष्णाच्छायां संक्रामन् सचेष्टः सम्यग्ध्यानपरायणः (ह. पु. ८-२१०)। २. आकानाच्च तदेक्षूणां रस- प्राणान् जहाति इत्येतदिङ्गिनीरूपमनशनम् । (योगसंग्रहणे नृणाम् । इक्ष्वाकुरित्यभद् देवो जगतामभि- शा. स्वो. विव. ४-८९)। संमतः ॥ (म. पु. १६-२६४)। प्रागमविहित एक क्रियाविशेष का नाम इङ्गिनी है। कर्मभूमि के प्रारम्भ में भगवान् आदिनाथ ने प्रजा उसको स्वीकार करने वाला क्रमसे होने वाली के लिए चूंकि इक्षुरस के संग्रह का उपदेश दिया प्रायु की हानि को जानकर जीव-जन्तु रहित एकान्त था, अतएव उन्हें इक्ष्वाकु कहा जाता है। स्थान में रहता हा चारों प्रकार के प्राहार इङ्गाल-देखो अङ्गार दोष । १. जे णं णिग्गंथे वा का परित्याग करता है। वह छाया से उष्ण णिग्गंथी वा फासु-एसणिज्ज असण-पाण-खाइम- प्रदेश में और उष्ण प्रदेश से छाया में संक्रमण करता साइमं पडिग्गाहेत्ता समुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोव- हुमा सावधान रहकर ध्यान में तत्पर रहता है व न्ने प्राहारं प्राहारेति एस णं गोयमा स इंगाले पाण- प्राणों को छोड़ता है-मृत्यु को स्वीकार करता है। भोयणे। (भगवती ७, १, १६-खण्ड ३, पृ. ५)। इसे इङ्गिनीरूप अनशन कहा जाता है। २. निर्वाता विशाला नात्युष्णा शोभनेयमिति तत्रा- इङ्गिनीमरण-देखो इङ्गिनी व इङ्गिनी-अनशन । नुराग इङ्गालः। (भ. प्रा. विजयो. ३-२३०; १. आत्मोपकारसव्यपेक्षं परोपकारनिरपेक्षम इङ्गि टी. ४४६)। ३. इङ्गालं सरागप्रशंसनम् । नीमरणम् । (धव. पु. १, पृ. २३-२४) । २. इङ्गिनी (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. २५, पृ. ५८)। श्रुतविहितक्रियाविशेषः, तद्विशिष्टं मरणमिङ्गिनीमर१ साधु और साध्वी प्रासुक व एषणीय प्रशन, पान, णम् । अयमपि हि प्रवृज्यादिप्रतिपत्तिक्रमेणवायुषः खादिम एवं स्वादिम आहार को ग्रहण करके मोह परिहाणिमवबुध्य प्रात्तनिजोपकरणः स्थावर-जङ्गमको प्राप्त होता हुआ यदि लोलुपता व प्रासक्ति से प्राणिविजितस्थण्डिलस्थायी एकाकी कृतचतुर्विधाउस पाहार को खाता है तो यह इङ्गाल (अंगार) हारप्रत्याख्यानः छायात उष्णं उष्णाच्छायां सङ्क्रामन् नाम का एषणा दोष होता है। २ यह वसतिका सचेष्टः सम्यग्ज्ञानपरायणः प्राणान् जहाति एतदिङ्गिहवा और अधिक गर्मी-सर्दी से रहित विशाल और नीमरणमपरिकर्मपूर्वकं चेति । (त. भा. सिद्ध. व. ६, सुन्दर है; ऐसा समझ कर उसमें अनुराग करने से १९) । ३. स्वाभिप्रायानुसारेण स्थित्वा प्रवर्त्यमानं इंगालदोष होता है। मरणं इङ्गिनीमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. टी. इङ्गित-इङ्गितं निपुणमतिगम्यं प्रवृत्ति-निवृत्ति- २६)। ४. अप्पोवयारवेक्खं परोवयारूणमिंगणीमरसूचकमीषभ्रू-शिरःकम्पादि। (जीतक. चू. वि. णं। (गो. क. ६१)। ५. परप्रतीकारनिरपेक्षमाव्या. ४-२५, पृ. ३८)। त्मोपकारसापेक्षमिङ्गिनीमरणम् । (चा. सा. पृ. ६८ निपुणबुद्धियों के द्वारा जान सकने के योग्य ऐसे कार्तिके. टी. ४६६)। प्रवृत्ति या निवृत्ति के सूचक कुछ भ्रुकुटि व शिर के १ दूसरेके द्वारा की जाने वाली सेवा-सुश्रूषा को स्वीकम्पन प्रादि शारीरिक संकेतों को इङ्गित कहा कार न करके स्वयं ही शरीर की सेवा-सुश्रुषा करते जाता है। हुए जो मरण होता है उसे इङ्गिनीमरण कहते हैं । इङ्गिनी--१. इंगिणीशब्देन इङ्गितमात्मनो भण्यते। इच्छा-१. एषणं इच्छा बाह्याऽभ्यन्तरपरिग्रहाभि(भ. प्रा. विजयो. २६)। २. इंगिणीशब्देन इंगित- लाषः । (जयध. प. ७७७)। २. इच्छाऽभिलाषस्त्रमात्मनोऽभिप्रायो भण्यते । (भ. प्रा. मूला. २६)। लोक्यविषयः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ८-१०, पृ. १४६)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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