Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 326
________________ आवश्यकी क्रिया] २१७, जैन-लक्षणावली [आवीचिमरण हाणि या सामायिकादीनाम् ॥ (ह. पु. ३४-१४२)। ३. उड्ढगया आवासाxxx(त्रि. सा. २६५) । ५. आवश्यकक्रियाणां तु यथाकालं प्रवर्तना। आव- ४. एककस्मिन्नण्डरे असंख्यातलोकमात्राः पावासाः, श्यकापरिहाणिः षण्णामपि यथागमम ॥ (त. श्लो. तेऽपि प्रत्येकजीवशरीरभेदाः सन्ति । (गो. जी. म. ६, २४, १४)। ६. एतेषां (सामायिकादीनां) प्र. व जी. प्र. टी. १९४)। षण्णामावश्यकानामपरिहाणिरेका चतुर्दशी भावना। १ भवनवासी और व्यन्तर देवों के जो निवासस्थान (भा. प्रा. टी. ७७)। ७. सुमुहर्ताद्यनपेक्षम् अवश्यं द्रह, पर्वत और वृक्ष प्रादि के ऊपर अवस्थित होते हैं निश्चयेन कर्तव्यानि आवश्यकानि, तेषामपरिहाणिः वे प्रावास कहलाते हैं। ४ निगोद जीवों के प्राश्रयआवश्यकाऽपरिहाणिः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४)। भूत अण्डरों में से प्रत्येक में जो असंख्यात लोक प्रमाण १ समता-वन्दनादि छह आवश्यक क्रियाओं का स्कन्धविशेष होते हैं उनका नाम प्रावास है। वे यथासमय परिपालन करने को प्रावश्यकापरिहाणि प्रावास प्रतिष्ठित प्रत्येक जीवों के शरीरभेदरूप हैं। कहते हैं। आवासक-देखो आवश्यक । प्रावश्यकी क्रिया-१. अवश्यं गन्तव्यकारणमि- ग्राम हिनी मुद्रा..-हस्ताभ्यामजलि कृत्वा प्रकामत्यतो गच्छामीति अस्यार्थस्य संमूचिका आवश्यकी, मूल पर्वाङ्गुष्ठसंयोजनेनावाहनी मुद्रा। (निर्वाणक. पृ. अन्यापि कारणापेक्षा या या क्रिया सा क्रिया अव- ३२)। श्या क्रियेति सूचितम् । (अनुयो. हरि. व. पु. ५८)। दोनों हाथों से अञ्जलि को बांधकर प्रकाममूल २. अवश्यकर्तव्यमावश्यकम्, तत्र भवा आवश्यिकी, (पहुंचे), पर्व और अगुष्ठ के परस्पर मिलाने को ज्ञानाद्यालम्बनेनोपाश्रयात् बहिरवश्यं गमने समुप- आवाहनीमुद्रा कहते हैं। स्थिते अवश्यं कर्तव्यमिदमतो गच्छाम्यहमित्येवं गुरुं प्रावीचिमरण-१. प्रावीची नाम निरन्तरमित्यर्थः, प्रति निवेदना आवश्यकीति हृदयम् । (अनुयो. मल. उववन्नमत्त एव जीवो अणुभावपरिसमाप्ते: निरन्तरं हेम. वृ. सू. ११८, पृ. १०३)। समये समये मरति । (उत्तरा. चू. पृ. १२७)। १ जाने का कारण अवश्य है, अतः जाता हूँ; इस २. वीचि-शब्दस्तरङ्गाभिधायी, इह तु वीचिरिव अर्थ को सूचक क्रिया तथा कारणसापेक्ष अन्यान्य वीचिरिति प्रायुष उदये वर्तते-यथा समूद्रादी क्रिया भी प्रावश्यकी क्रिया कही जाती है। वीचयो नैरन्तरर्येणोद्गच्छन्ति एवं क्रमेण आयुष्कापावाप (भक्त)कथा - १. शाक-घृतादीन्येता- ख्यं कर्म अनूसमयमदेति इति तदय प्रावीचिशब्देन वन्ति तस्यां रसवत्यामुपयुज्यन्त इत्येवंरूपा कथा भण्यते । प्रायुषः अनुभवनं जीवितम्, तच्च प्रतिसमयं आवापकथा । (स्थाना. अभय. वृ. ४, २, २८२, पृ. जीवितभङ्गस्य मरणम् । अतो मरणमपि अत्र १६६) । २. अमुकस्य राज्ञः सार्थवाहादेर्वा रसवत्यां आवीचि, उदयानन्तरसमये मरणमपि वर्तते इति । दश शाकविशेषाः, पञ्च पलानि सपिस्तथाऽऽढकस्त- (भ. प्रा. विजयो. २५) । ३. आ समन्ताद्वीचय इव न्दुलानामुपयुज्यत इत्यादि यदा सामान्येन विवक्षित- वीचयः-पायुर्दलिकविच्युतिलक्षणावस्था यस्मिस्तरसदतीद्रव्यसंख्याकथां करोति सा पावापभक्तकथा। दावीचि । अथवा वीचिः-विच्छेदस्तदभावादवीचि, (प्राव. हरि. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ६२)। दीर्घत्वं तु प्राकृतत्वात्तदेवंभूतं मरणमावीचिमरणं१ अमुक रसोई में इतने शाक व घी आदि का उप- प्रतिक्षणमायुर्द्रव्यविचटनलक्षणम् । (समवा. अभय. योग होगा, इस प्रकार की चर्चा करने को प्रावाप- वृ. १७, पृ. ३४) । ४. प्रतिसमयमनुभूयमानायुषो. (भक्त)कथा कहते हैं। ऽपरापरायुर्दलि कविच्युति लक्षणा अवस्था यस्मिन् आवास-१. दह-सेल-दुमादीणं रम्माणं उवरि मरणे तदावीचिमरणम् । (प्रव. सारो. वृ. होति पावासा। (ति. प. ३-२३); xxxदह- १००६, पृ. २६६)। ५. तत्र अवीचिमरणम्गिरिपहदीण उवरि अावासा ॥ (ति. प. ६-७)। वीचिः विच्छेदः, तदभावाद प्रवीचिः-नारा२. अंडरस्स अंतो ट्ठियो कच्छउडंडरंतोट्ठियवक्खार- तिर्यङ्-नराणामुत्पत्तिसमयात् प्रभृतिनिज-निजायुष्कसमाणो आवासो णाम । (धव. पु. १४, पृ. ८६)। कर्मदलिकानामनुसमयमनुभवनात् विचटनम् । (उत्तरा. ल. २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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