Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 328
________________ आश्रम] २१६, जैन-लक्षणावलो [प्रासन्न (प्रोसण्ण) ४, ३, ३४१, पृ. २५१)। २. आशीविषलब्धिनि- प्रासनप्रदान-पासणपदाणं णाम ठाणग्रो ठाणं ग्रहानुग्रहसामर्थ्यम् । (योगशा. स्वो. विव. १-९)। संचरंतस्स पासणं गेण्हिऊण इच्छिए ठाणे ठवेइ । ३. पासी दाढा, तग्गयमहाविषाऽऽसीविसा। (प्रव. (दशवै. च. पृ. २७)। सारो. वृ. १५०१)। एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने वाले के प्रासन १प्राशी का अर्थ दाढ़ होता है, जिनकी दाढ़ों में को लेकर अभीष्ट स्थान में स्थापित करना, इसका विष होता है वे प्राशीविष कहलाते हैं। नाम प्रासनप्रदान है। पाश्रम-१. प्राश्रमः तापसाद्यावासः । (प्रोपपा. प्रासनशुद्धि-पर्यङ्काद्यासनस्थायी बद्ध्वा केशादि अभय. व. ३२, पृ. ७४)। २. आश्रमस्तापसविनि- यो मनाक् । कुर्वस्तां न चलत्यस्याऽऽसनशुद्धिर्भवेदिवासः । (प्रश्नव्या. अभय. व. पु. १७५) । ३. ग्रा- यम् ।। (धर्मसं. श्रा. ७-४७) । श्रमास्तीर्थस्थानानि तापसस्थानानि वा। (कल्पसू. पर्यक प्रादि (कायोत्सर्ग) प्रासन से स्थित होकर व वि. वृ. ४-८८)। बालों आदि को बांध कर जो उस वन्दना को करता ३ तीर्थस्थानों को या तपस्यिों के निवासस्थानों को हुआ किचित् भी विचलित नहीं होता है, उसके आश्रम कहते हैं। प्रासनशुद्धि होती है। प्राषाढमास-मिथुनराशौ यदा तिष्ठत्यादित्यः स प्रासनानुप्रदान-पासनानुप्रदानम् प्रासनस्य स्था नात् स्थानान्तरसञ्चारणम् । (समवा. अभय. ब. काल आसाढमास इत्युच्यते । (मूला. व. ५-७५)। जिस काल में सूर्य मिथुन राशि पर रहता है उसे ६१, पृ. ८६)। प्रासन का एक स्थान से दूसरे स्थान में स्थानान्तप्रासाढमास कहते हैं। रित करना, इसका नाम प्रासनानप्रदान है। पासक्त-पासक्तः पतितेऽपि वीर्ये नारीशरीरमालि प्रासनाभिग्रह-पासनाभिग्रहः तिष्ठत एवासनानङ्गय तिष्ठति । (प्रा. दि. १६, पृ.७५)। यनपूर्वकमुपविशतात्रेति भणनम् । (समवा. अभय. वीर्यपात हो जाने पर भी जो स्त्री के शरीर का वृ. ६१, पृ. ८६)। प्रालिंगन करके स्थित रहता है उसे प्रासक्त कहा ठहरते हुए साधु को प्रासन लाते हुए 'यहां बैठिये' जाता है। इस प्रकार के नपुंसकों में यह अन्तिम ऐसा कहना, इसका नाम प्रासनाभिग्रह है। भेव है। ये सब ही दीक्षा के अयोग्य होते हैं। प्रसन्न (पोसण्ण)--१. प्रोसण्णमरणमच्यतेप्रासन-निश्चयेनात्मनोऽनन्येऽवस्थानं यत्तदासनम्। निर्वाणमार्गप्रस्थितात् संयतसार्थाद् यो हीनः प्रच्युतः लोकव्यवहारेण तदवस्थानसाधनाङ्गत्वेन यम-निय- सोऽभिधीयते प्रोसण्ण इति । तस्य मरणं प्रोसण्णमाद्यष्टाङ्गेषु मध्ये शरीरालस्य-ग्लानिहानाय नाना- मरणमिति। प्रोसण्णग्रहणेन पार्श्वस्थाः स्वच्छन्दाः विधतपश्चरणभारनिर्वाहक्षम भवितुं तत्पाटवोत्पाद कुशीला: संसक्ताश्च गृह्यन्ते । तथा चोक्तम्नाय यन्निर्दिष्टं पर्यंकापर्यंक-वीर-वन-स्वस्तिक पासत्थो सच्छंदो कुसील संसत्त होति प्रोसण्णा । जं पद्मकादिलक्षणमासनम् । (प्रारा. सा. टी. २६) । सिद्धिपच्छिदादो प्रोहीणा साधुसत्थादो। के पूनस्ते? निश्चयत: प्रात्मा से अनन्य में प्रात्मा में ही- ऋद्धिप्रिया रसेष्वासक्ता: दुःखभीरवः सदा दु:खजो अवस्थान है, इसका नाम प्रासन है। इस कातराः कषायेषु परिणताः संज्ञावशगा: पापश्रुताअवस्थान के साधनभूत यम-नियमादि पाठ अंगों में भ्यासकारिणः त्रयोदशविधासु क्रियास्वलसाः सदा निर्दिष्ट जो पर्यक, अर्धपर्यक, वीरासन, वज्रासन, संकलिष्टचेतसः भक्ते उपकरणे च प्रतिबद्धाः निमित्तस्वस्तिक और पद्मासन आदि लोकप्रसिद्ध प्रासन- मंत्रौषधयोगोपजीविनः गृहस्थवैयावृत्त्यकराः गुणविशेष हैं उन्हें भी व्यवहार से प्रासन कहा जाता है। हीना गुप्तिषु समितिषु चानुद्यताः मन्दसंवेगा दशप्रासनक्रिया - उत्कटाऽऽसनादिकाऽऽसनक्रिया । प्रकारे धर्मेऽकृतबुद्धयः शबलचारित्रा आसन्ना इत्यु(भ. प्रा. विजयो. टी. ८६)। च्यन्ते । (भ. प्रा. विजयो. टी. २५, पृ.८८)। उत्कट प्रासन आदि के उपयोग का नाम आसन- २. निर्वाणमार्गप्रस्थितसंयतसार्थात् प्रच्युत आसन्न क्रिया है। उच्यते । तदुपलक्षणं पार्श्वस्थ-स्वच्छन्द-कुशील-संस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446