Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 320
________________ आर्तध्यान] २११, जैन-लक्षणावली [आलम्बन कामिनीवियोगादनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमार्तध्या- किये जाते हैं वे आर्य कहलाते हैं। नम् ॥ (नि. सा. वृ. ६६) । २२. अनिष्टयोग-प्रिय- प्रायिका- आर्यिका उपचरितमहाव्रतधराः स्त्रियः । विप्रयोगप्रभृत्यनेकातिसमुद्भवत्वात् । भवोद्भवातरथ हेतुभावाद्यथार्थमेवात मिति प्रसिद्धम्। (प्रात्मप्र. उपचरित महाव्रतों को धारक महिलाओं को ६१)। २३. आत विषयानुरञ्जितम् । (धर्मसं. आर्यिका कहा जाता है। मान. स्वो. वृ. ३-२७, पृ. ८०)। २४. प्रार्तभावं आर्ष विवाह-१. गोमिथुनपुरःसरं कन्याप्रदानागत प्रातः, आर्तस्य वा ध्यानमार्तध्यानम् । (प्रा. दार्षः । (धर्मबि. मु. ३. १-१२)। २. गोमिथुनदानचू. ४ अ.-अभिधा. १, पृ. २३५)। २५. अतिः पूर्वकमार्षः। (श्राद्धगु. पृ. १; योगशा. स्वो. विव. शारीर-मानसी पीडा, तत्र भव प्रातः, मोहोदयाद- १-४७; धर्मसं. मान. स्वो. वृ. १-५, पृ. ५)। गणितकार्याकार्यविवेकः । (अभिधा. १, पृ. २३५)। गौयगल के दानपूर्वक कन्या प्रदान करने को प्रार्ष २६. निदइ निप्रयकयाइं पसंसई विम्हिरो विभूईओ। विवाह कहते हैं। पत्थेइ तासु रज्जइ तयज्जणपरायणो होई ॥ सद्दा क्रिया-प्रार्हन्त्यमहतो भावो कर्म वेति इविसयगिद्धो सद्धम्मपरम्मुहो पमायपरो । जिणमय परा किया। यत्र स्वर्गावतारादिमहाकल्याणसम्पदः ।। मणविक्खंतो वट्टइ अम्मि झाणम्मि ॥ (पाव. ४ यासो दिवोऽवतीर्णस्य प्राप्तिः कल्याणसम्पदाम् । अ. १६-१७-अभिधा. १, पृ. २३७)। २७. शब्दा तदार्हन्त्यमिति ज्ञेयं त्रैलोक्यक्षोभकारणम् ।। (म.पु. दीनामनिष्टानां वियोगासंप्रयोगयोः । चिन्तनं वेद ३६, २०३-४)। नायाश्च व्याकुलत्वमुपेयुषः । इष्टानां प्रणिधानं च परहंत के भाव अथवा कर्मरूप क्रिया को पार्हन्त्य संप्रयोगावियोगयोः । निदानचिन्तनं पापमार्तमित्थं क्रिया कहते हैं, जिसमें स्वर्गावतरणादि रूप चतुर्विधम् ।। (अध्यात्मसार १६, ४-५)। कल्याण-सम्पदायें प्राप्त होती हैं। स्वर्ग से अवतीर्ण १ अनिष्ट का संयोग होने पर उसे दूर करने के लिए, हुये भगवान् अरहंत को जो कल्याण-सम्पदानों की इष्ट का वियोग होने पर उसकी प्राप्तिके लिए, पीड़ा प्राप्ति होती है वह प्रार्हन्त्य क्रिया कहलाती है, जो के होने पर उसके परिहार के लिए, तथा निदान तीनों लोकों को क्षोभ उत्पन्न करने वाली है। आगामी काल में सुख की प्राप्ति की इच्छा के लिए प्रालपनबन्ध-देखो पालापनबन्ध । रथ-शकटाबार-बार चिन्तन करना; इसे प्रार्तध्यान कहते हैं। दीनां लोहरज्जु-वरत्रादिभिरालपनादाकर्षणात् बन्धः प्रार्य-१. गुणगुणवद्भिर्वा अर्यन्त इत्यार्याः। (स. पालपनबन्धः । अनेकार्थत्वात् धातूनां लपि: पाकसि. ३-३६; त. वा. ३, ३६, २; रत्नक. टी. ३, र्षणक्रियो ज्ञेयः । (त. वा. ५, २४, ६)। २१; त. वृत्ति श्रुत. ३-३६)। २. इक्ष्वाकु-हर्युग्र रथ व शकट आदि के अंग-उपांगरूप काष्ठ प्रादि कुरुप्रधाना: सेनापतिश्चेति पुरोहिताद्याः। धर्मप्रिया को लोहमय सांकल व रस्सी आदि के द्वारा खींच स्ते नृपते त एव आर्यास्त्वनार्या विपरीतवृताः ।। (वरांग. ८-४)। ३. सदगुणरर्यमाणत्वाद् गुणवद् कर बांधना, यह मालपनबन्ध कहलाता है। भिश्च मानवः । (त. श्लो. ३, ३७, २) । ४. अर्ध- प्रालब्ध दोष- १. उपकरणादिकं लब्ध्वा यो षडविंशतिजनपदजाताः भूयसा आर्याः । अन्यत्र जाता वन्दनां करोति तस्यालब्धदोषः। (मला. व. ७, म्लेच्छाः । तत्र क्षेत्र-जाति-कूल-कर्म-शिल्प-भाषा- १०६) । २. उपध्याप्त्या क्रिया लब्धम् । (अन. ध. ज्ञान-दर्शन-चारित्रेष शिष्टलोकन्यायधर्मानपेताचरण- स्वो. टी. ८-१०६)। शीला पार्याः । (त. सिद्ध. वृ. ३-१५)। ५. आराद १ उपकरण प्रादि पाकर गुरु की वन्दना करने को हेयधर्मेभ्यो याताः प्राप्ता उपादेयधर्मरित्यार्याः ।। प्रालब्ध दोष कहते हैं। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-३७, पृ. ५५)। मालम्बन-१. आलंबणेहिं भरियो लोगो झाइदु१ जो गुणों से युक्त हों, अथवा गुणी जन जिनकी मणस्स खवगस्स । जं जं मणसा पेच्छइ तं तं पालसेवा-सुश्रुषा करते हैं उन्हें प्रार्य कहते हैं । ५ जो हेय बणं होई । (धव. पु. १३, पृ. ७०)। २. पालम्बनं धर्म वालों में से उपादेय धर्म वालों के द्वारा प्राप्त वाच्ये पदार्थे अर्हत्स्वरूपे उपयोगस्यैकत्वम् । (ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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