Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 308
________________ आनुपूर्वीसंक्रम] १६६, जैन-लक्षणावली [प्राप्रच्छना त्रि-चनुःसमय प्रमाणेन विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं १ जिस नामकर्म के उदय से विग्रहगति में जीव के गच्छतो जीवस्यानुश्रेणिनियता गमनपरिपाटी आन- पूर्वशरीर के आकार का विनाश नहीं होता है उसे पूर्वी। तद्विपाकवेद्या कमंप्रकृतिरपि कारणे कार्योप- प्रानुपूर्व्य नामकर्म कहते हैं । चारात् प्रानुपूर्वी। (पंचसं. मलय. व. ३-६, प्रान्तर तप-देखो पाभ्यन्तर तप । अन्तरव्यापारपृ. ११५; प्रज्ञाप. मलय. व. २३-२६०, पृ. भूयस्त्वादन्यतीर्थविशेषतः । बाह्य द्रव्यानपेक्षत्वादा६८०; प्रव. सारो. वृ. १२६३)। १४. गत्यभि- न्तरं तप उच्यते ।। (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२० उद्.)। धानव्यपदेश्यमानपूर्वीनाम। (कर्मवि. दे. स्वो. व. प्रायश्चित्तादिरूप छह प्रकार के तप को चंकि ४२)। १५. विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो ___ लौकिक जन देख नहीं सकते हैं, विधर्मी जन भाव जीवस्यानुश्रेणिनियता गमनपरिपाट्यानुपूर्वी । तद्वि- से उसका पाराधन नहीं कर सकते, तथा मुक्तिपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरप्यानपूर्वी । (कर्मप्र. यशो. टी. प्राप्ति का अन्तरङ्ग कारण भी वह है। अतएव उसे १, पृ. ५)। प्रान्तर या प्राभ्यन्तर तप कहते हैं। १ जो जीव विवक्षित गति में उत्पन्न होने का प्रापृच्छा-१. आदावणादिगहणे सण्णाउन्भामइच्छुक होकर अन्तर्गति-विग्रहगति-में वर्तमान गादिगमणे वा । विणयेणायरियादिसु आपुच्छा होदि है वह जिस कर्म के उदय से श्रेणि के-आकाशप्रदेश- कायव्वा ।। (मला. ४-१४)। २. प्राप्रच्छनमापंक्ति के अनुसार जाकर अभीष्ट स्थान को प्राप्त पृच्छा, स च कर्तुमभीष्टे कार्ये प्रवर्तमानेन गुरोः करता है उसका नाम प्रानुपूर्वी है। अन्य कितने ही कार्या 'अहमिदं करोमीति'। (प्राव. नि. हरि. व. प्राचार्य यह भी कहते हैं कि जो कर्म निर्माण नाम- ६६७)। ३. अापुच्छा प्रतिप्रश्नः किमयमस्माभिरकर्म के द्वारा निर्मित शरीर के अंग और उपांगों को नुगृहीतव्यो न वेति संघप्रश्नः। (भ. प्रा. विजयो. रचनाविशेष के क्रम का नियामक होता है वह टी. ६९); आपृच्छा किमयमस्माभिरनुगृहीतव्यो पानुपूर्वी नामकर्म कहलाता है। न वेति संघ प्रति प्रश्नः । (भ. प्रा. मला. टी. ६६)। पानपूर्वोसंक्रम - कोह-माण-माया-लोभा एसा ४. आपृच्छनमापृच्छा, विहार-भूमिगमनादिषु प्रयोपरिवाडी आणुपुव्वीसंकमो णाम । (कसायपा. चू. जनेषु गुरोः कार्या । च-शब्दः पूर्ववत् । इहोक्तम्-- पृ. ७६४)। अापुच्छणा उ कज्जे गुरुणो तस्संमयस्स वा नियमा। क्रोध, मान, माया और लोभ का क्रम से एक का एवं खु तयं सेयं जायइ सह निज्जराहेऊ ॥ इति । दूसरे में संक्रमण होने को अर्थात् क्रोधसंज्वलन का (स्थाना. अभय. वृ. १०, १, ७५०, पृ. ४७५)। मानसंज्वलन में, मानसंज्वलन का मायासंज्वलन में ५. पापुच्छा-आपृच्छा स्वकार्य प्रति गुर्वाद्यभिऔर मायासंज्वलन का लोभसंज्वलन में संक्रमण होने प्रायग्रहणम् । (मूला. वृ. ४-४) । को प्रानुपूर्वीसंक्रम कहते हैं। १ वृक्ष के मूल में अथवा खुले आकाश में कायोत्सर्ग भानुप्रय॑नाम-देखो प्रानुपूर्वी। १. पूर्वशरीरा- आदि के ग्रहणरूप प्रातापनयोगादि के विषय में तथा काराविनाशो यस्योदयाद् भवति तदान पूयं नाम। आहार या अन्य किसी निमित्त से दूसरे ग्राम के (स. सि. ८-११) । २. यदुदयात् पूर्वशरीराकारा- लिए जाने प्रादि कार्य के विषय में विनयपूर्वक विनाशस्तदानुपूयं नाम। यत्पूर्वशरीराकाराविनाशः प्राचार्य प्रादि से पूछना, इसका नाम प्रापृच्छा है । यस्योदयात् भवति तदानुपूयं नाम ।। (त. वा. ८, प्राप्रच्छन---ग्रन्थारम्भ-कचोल्लोच-कायश द्धिक्रिया११, ११)। ३. यदुदयात् पूर्वशरीराकाराविनाश- दिषु । प्रश्नः सूर्यादिपूज्यानां भवत्याप्रच्छनं मुनौ ।। स्तदानुपूयं नाम । (त. श्लो. ८-११)। ४. पूर्वो- (प्राचा. सा. २-१३)। तरशरीरयोरन्तराले एश-द्वि-त्रिसमयेषु वर्तमानस्य ग्रन्थ के प्रारम्भ में, केशलंच करने के समय और यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन जीवप्रदेशानां विशिष्टसंस्था- कायशुद्धि प्रादि क्रियाओं को करते हुए प्राचार्य नविशेषो भवति तदानुपूयं नाम । (मूला. वृ. १२, प्रादि पूज्य पुरुषों से पूछने को प्राप्रच्छन कहते हैं। १९८)। ५. यदुदयेन पूर्वशरीराकार[रा] नाशो आप्रच्छना-देखो आपृच्छा। १. पापुच्छणा उ भवति तदानुपूर्व्यम् । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। कज्जे Xxx। (प्राव. नि. ६६७) । २. आउ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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