Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 305
________________ प्राधाकर्म] १६६, जैन-लक्षणावली आध्यात्मिक धर्म्यध्यान तमाह कम्मं ति ।। (पिण्डनि. भा. २५-२७, पृ. ३८)। करणं तदाधाकर्म । (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. २०, पृ. ६. प्राहाकम्म-द्धाणकप्पाइयं वा बहु अइयारं करेज्जा। ४८) । १४. साधु चेतसि प्राधाय प्रणिधाय, साधुदीहगिलाणकप्परस वा अवसाणे आहाकम्मसन्नि- निमित्तमित्यर्थः, कर्म–सचित्ताचित्तीकरणमचित्तस्य हिसेवणं वा कयं होज्जा। (जीतक. चू. पृ. २०, वा पाको निरुक्तादाधाकर्म । (धर्मसं. मान. स्वो. वृ. पं. ५-६)। ७. वृक्षच्छेदस्तदानयनं इष्टकापाकः ३, २२, पृ. ३८)। भूमिखननं पाषाणसिकतादिभिः पूरणं धरायाः कुट्टनं ३. जिस एक या अनेक साधुओं के निमित्त मन को कर्दम करणं कीलानां करणं अग्निनायस्तापनं (कार्ति. आहित-प्रवर्तित करके औदारिकशरीरधारी तिर्यच -अग्निना लोहतापनं) कृत्वा प्रताड्य क्रकचः व मनुष्यों का अपद्रावण-प्रतिपात (मरण) रहित काष्ठपाटनं बासीभिस्तक्षणं, (कार्ति.-'वासीभिस्त- पीडन-और त्रिपात-मन-वचन-काय-अथवा क्षणं' नास्ति) परशुभिश्छेदनं इत्येवमादिव्यापारेण देह, प्राय और इन्द्रिय प्राण इन तीनों का विनाश षण्णां जीवनिकायानां बाधां कृत्वा स्वेन वा उत्पा- किया जाता है उसे प्राधाकर्म या अधःकर्म कहते दिता अन्येन वा कारिता वसतिराधाकर्म-शब्देनो- हैं। इसके प्राधाकर्म, अधःकर्म, अात्मघ्नकर्म और च्यते । (भ. प्रा. विजयो. टी. २३०, कातिके. टी. प्रात्मकर्म ये गामान्तर हैं। ४ उपद्रावण, विद्रावण, ४४६)। ८. साध्वयं यत्सचित्तमचित्ती क्रयते अचित्तं परिद्रावण और प्रारम्भकार्य के द्वारा निष्पन्न वा पच्यते तदाधाकर्म । (प्राचारांग शी. व. २, १, औदारिक शरीर को प्राधाकर्म कहते हैं। अभिप्राय २६६, पृ. ३१६)। ६. प्राधाय विकल्प्य यति मनसि यह कि जिस शरीर में स्थित प्राणियों के अन्य प्राणियों कृत्वा सचित्तस्याचित्तीकरणमचित्तस्य वा पाको के निमित्त से उपद्रावण आदि होते हैं उस शरीर निरुक्तादाधाकर्म । (योगशा. स्वो. विव. १-३८)। को प्राधाकर्म कहते हैं। ७ वृक्षों के छेदने, इंटों के १०. प्राधाकर्म अध्वानकल्पादिकं वा शुष्ककदली- पकाने एवं भूमि के खोदने प्रादि रूप व्यापार से फलादिधरणतः। दीर्घग्लानेन वा सता यदाधाकर्मर- छह काय के प्राणियों को बाधा पहँचा कर स्वयं या सादिकारणतः । सन्निधिसेवनं वा चरितम् । (जीतक. अन्य के द्वारा वसतिका के उत्पादन को भी प्राधाचू. वि. व्या. पृ. ५१, २०-४)। ११: वृक्षच्छेदेष्ट- कर्म कहा जाता है। कापाक-कई मकरणादिव्यापारेण षण्णां जीवनिका- अाधार्मिक- देखो प्राधाकर्म । आधार्मिक यानां बाधां कृत्वा स्वेनोत्पादिता अन्येन वा कारिता यन्मूलत एव साधूनां कृते कृतम् । (व्यव. भा. मलय. क्रियमाणा वानुमोदिता वसतिराधाकम-शब्देनोच्यते। वृ. ३-१६४, पृ. ३५)। (भ. प्रा. मला. टी. २३०)। १२. प्राधानम् आधा साधनों के लिए बनाये गये आहार को प्राधाकर्मिक xxx साधुनिमित्तं चेतसः प्रणिधानम्, यथा अमु- कहते हैं। कस्य साधोः कारणेन मया भक्तादि पचनीयमिति, प्राधाकमिका-देखो प्राधाकर्म । आधार्मिका आधया कर्म पाकादिक्रिया प्राधाकर्म, तद्योगाद् साधूनामेवार्थाय कारिता । (बृहत्क. वृ. १७५३) । भक्ताद्यपि प्राधाकर्म।xxxयद्वा प्राधाय -साधु साधुओं के लिए बनवाई गई वसतिका को आधाचेतसि प्रणिधाय-यत् क्रियते भक्तादि तदाधा- कमिका कहते हैं। कर्म । (पिण्डनि. मलय. वृ. ६२); अधःकर्मेति प्राधिकरणिकी क्रिया-देखो अधिकरणक्रिया। अधोगति निबन्धनं कर्म अधःकर्म। xxxआत्मानं हिंसोपकरणादानादधिकरणिकी क्रिया। (स. सि. दुर्गतिप्रपातकारणतया हन्ति विनाशयतीत्यात्मनम्। ६-५; त. वा. ६, ५, ८)। तथा यत् पाचकादिसम्बन्धि कर्म पाकादिलक्षणं हिंसा के उपकरण-खड़ग व भाला आदि-के ज्ञानावरणीयादिलक्षणं वा तदात्मनः सम्बन्धि क्रियते ग्रहण करने को प्राधिकरणिकी क्रिया कहते हैं। अनेनेति प्रात्मकर्म । एतानि (प्राधाकर्म, अधःकर्म, प्राध्यात्मिक धर्म्यध्यान -स्वसंवेद्यमाध्यात्मि आत्मघ्नकर्म, प्रात्मकर्म) च नामान्याधाकर्मणो कम् । (चा. सा. पृ. ७६)। मुख्यानि । (पिण्डनि. मलय. वृ. ६५)। १३. यत् स्वसंवेद्य-स्वसंवेदनगोचर-धर्म्यध्यान को प्राषटकायविराधनया यतिन प्राधाय संकल्पनाशनादि- ध्यात्मिक धर्म्यध्यान कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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