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अन्यहितयुता करुणा १२, जैन-लक्षणावली
[अन्वयद्रव्याथिक ३ अपने पुत्र पुत्री आदि को छोड़कर अन्य गोत्र वालों कल्पते । (न्यायवि. २, १७७-७८) । २. अनुरिके, तथा मित्र व स्वजन-परजनादिकों के पुत्र पुत्री त्यध्युच्छिन्नप्रवाहरूपेण वर्तते यद्वा। अयतीत्ययगआदि का विवाह करना, यह अन्य (पर) विवाह- त्यर्थाद्धातोरन्वर्थतोऽन्वयं द्रव्यम् ।। (पञ्चाध्यायी करण नामक ब्रह्मचर्याणुव्रत का अतिचार है। . १-१४२)। अन्यहितयता करुणा-अन्यहितयुता सामान्येनैव अवस्था, देश और काल के भेद के होते हुए जो प्रीतिमत्तासम्बन्धविकलेष्वपि सर्वेषु एवान्येषु सत्त्वेषु कथंचित् तादात्म्य की व्यवस्था देखी जाती है उसे केवलिनामिव भगवतां महामुनीनां सर्वानुग्रहपरा- व्यवहार के लिए अन्वय माना जाता है । यणा हितबुद्धया चतुर्थी करुणा (षोडशक वृ. १३-६)। अन्वयदत्ति-१. अात्मान्वयप्रतिष्ठार्थ सूनवे यदप्रीतिमत्ता (रागविषयता) का सम्बन्ध नहीं होने पर शेषतः । समं समय-वित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ।। भी केवलियों के समान महामुनियों के जो सर्वप्रा- सैषा सकलदत्तिः स्यात् xIxx ॥ (सा. ध. णियों के अनुग्रहविषयक बुद्धि होती है, उसे अन्यहित- १-१८, टि. १)। २. अथाहूय सुतं योग्यं गोत्रजं वा युता करुणा कहते हैं।
तथाविधम् । ब्रूयादिदं प्रशान् साक्षाज्जातिज्येष्ठसअन्यापदेश-"अन्यस्य परस्य सम्बन्धीदं गुड- धर्मणाम् ।। ताताद्ययावदस्माभिः पालितोऽयं गृहाखण्डादि" इति व्यपदेशो व्याजोऽन्यापदेशः । (योग- श्रमः । विरज्यन जिहासूनां त्वमद्यार्हसि नः पदम् ॥ शा. स्वो. विव. ३-११६) ।
पुत्रः पूषोः स्वात्मानं सुविधेरिव केशवः। यः उप'यह गुड़ अथवा खांड प्रादि अन्य गृहस्थ के हैं, स्कुरुते वप्तुरन्यः शत्रुः सुतच्छलात् ॥ तदिदं मे धनं मेरे नहीं हैं', इस प्रकार के कपटपूर्ण वचन को धर्म्य पोष्यमप्यात्मसात्कुरु । सैषा सकलदतिहि परं अन्यापदेश कहते हैं। यह अतिथिसंविभागवत का पथ्या शिवाथिनाम ।। (सा. ध. ७, २४-२७) । पांचवां अतिचार है।
३. सकलदत्तिः प्रात्मीयस्वसन्ततिस्थापनार्थ पूत्राय अन्यापोह-स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिन्यापोहः । गोत्रजाय वा धर्म धनं च समर्प्य प्रदानमन्वयदत्तिश्च (अष्टशती ११)।
सैव । (कातिके. टीका ३६१)। स्वभावान्तर से विवक्षित स्वभाव की भिन्नता को २ अपनी सन्तानपरम्परा को स्थिर रखने के लिये अन्यापोह कहते हैं।
पुत्र को या सगोत्री को धर्म के साधनभूत चैत्यालय अन्योन्यप्रगृहीतत्व-अन्योन्यप्रगृहीतत्वं परस्परेण आदि एवं घनादि के प्रदान करने को अन्वयत्ति पदानां वाक्यानां वा सापेक्षता । (समवा. अभय. वृ. कहते हैं। इसका दूसरा नाम सकलदत्ति भी है। सू. ३५, रायप. टी. पृ. १६)।
अन्वयदृष्टान्त -१. साध्यव्याप्तं साधनं यत्र प्रदपदों या वाक्यों की परस्पर सापेक्षता को अन्योन्य- य॑ते सोऽन्वयदृष्टान्तः । (परीक्षा. ३-४४) । २. प्रगृहीतत्व कहते हैं।
साधनसत्तायां यत्रावश्यं साध्यसत्ता प्रदर्श्यते सोऽन्वअन्योन्याभाव-१. गवि योऽश्वाद्यभावश्च सोऽन्यो- यदृष्टान्तः । (षड्दर्शन. टीका ४-५५, पृ. २१०)। न्याभाव उच्यते । (प्रमाल. ३८६)। २. गवि २. अन्वयव्याप्तिप्रदर्शनस्थानमन्वयदृष्टान्तः । (न्याबलीव योऽयमश्वादीनामभावः सोऽन्योन्याभावः, यदी. पृ. ७८)। अन्योऽपरो गोरश्वस्यस्यान्यस्याश्वादेर्गवि अभावस्ता- १ जिस स्थान पर साध्य से व्याप्त साधन दिखाया दात्म्यनिषेधो यः सोऽयमन्योन्याभाव उच्यते इति जाय उसे अन्वयदृष्टान्त कहते हैं। सम्बन्धः । ३. तादात्म्यावच्छिन्नप्रतियोगिताका- अन्वयद्रव्याथिक-णिस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण भावत्वमन्योन्याभावलक्षणम् । (अष्टस. यशो. व. दव्वदव्वेदि [दव्वदव्वमिदि] । दव्वठवणो हि जो ११. पृ. १६६)।
सो अण्णयदव्वत्थिनो भणियो ।। (ल. नयच. २४); गाय आदि किसी एक वस्तु में अन्य अश्व आदि के णिस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण सव्वदम्वेहि । विबप्रभाव को अन्योन्याभाव कहते हैं।
हावणाहि जो सो अण्णयदव्वत्थिरो भणिदो ।। अन्वय-१. अवस्था-देश-कालानां भेदेऽभेदव्यव- (बृ. नयच. १६७, प. ७३); सामान्यगुणाद्यन्वयस्थितिः ।। या दृष्टा सोऽन्वयो लोके ब्यवहाराय रूपेण द्रव्यं द्रव्यमिति द्रवति व्यवस्थापयतीत्यन्वय
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