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शरणानुप्रेक्षा ]
( योगशा. ४, ६१-६४ ) । ११. संसारदुःखोपद्रुतस्य शरणाभावोऽशरणत्वम् । (त. सुखबो. वृ. ६-७) । १२. तत्तत्कर्म ग्लपितवपुषां लब्धवल्लिप्सितार्थं मन्वानानां प्रसभमसुवत्प्रोद्यतं भङ्क्तुमाशाम् । यद्वद्वार्यं त्रिजगति नृणां नैव केनापि दैवं तद्वन्मृत्युर्ग्रसन रसिक स्तद्वृथा त्राणदैन्यम् || सम्राजां पश्यतामप्यभिनयति न किं स्वं यमश्चण्डिमानं शकाः सीदन्ति दीर्घे क्व न दयितवधू दीर्घनिद्रा मनस्ये । श्रा: काल - व्यालदंष्ट्रां प्रकटतरतपोविक्रमा योगिनोऽपि व्याक्रोष्टुं न क्रमन्ते दि बहिरहो यत् किमप्यस्तु किं मे ॥ ( श्रन. ध. ६, ६०-६१ ) । १३. यथा मृगबालकस्य निर्जने वने बलवता मांसाकांक्षिणा क्षुधितेन द्वीपिना गृही - तस्य किञ्चिच्छरणं न वर्तते, तथा जन्म-जरा-मरणरोगादिदुःखमध्ये पर्यटतो जीवस्य किमपि शरणं न वर्तते, सम्पुष्टोऽपि कायः सहायो न भवति भोजनादन्यत्र दुःखागमने प्रयत्नेन सञ्चिता श्रपि रायो भवान्तरं नानुगच्छन्ति, संविभक्तसुखा अपि सुहृदो मरणकाले न परिरक्षन्ति रोगग्रस्तं पुमांसं संगता अपि बान्धवा न प्रतिपालयन्ति, सुचरितो जिनधर्मो दुःख - महासमुद्र सन्तरणोपायो भवति, यमेन नीयमानमात्मानमिन्द्र-धरणेन्द्र - चक्रवर्त्यादयोऽपि शरणं न भवन्ति, तत्र जिनधर्म एव शरणम् । एवं भावना शरणानुप्रेक्षा भवति । (त. वृत्ति श्रुत. ६-७ ) । १ मणि, मंत्र, औषधि, रक्षक, घोड़ा, हाथी, रथ और विद्या; ये कोई भी मरण के समय में प्राणी का रक्षण नहीं कर सकते हैं। देखो जिस इन्द्र का स्वर्ग तो दुर्ग के समान है, देव जिसके किंकर हैं, वज्र जिसका शस्त्र है, और हाथी जिसका ऐरावत है; उसको भी मरण से बचाने वाला कोई नहीं है । जन्म और मरण आदि से यदि कोई रक्षा कर सकता है तो वह कर्मबन्धनादि से रहित अपना श्रात्मा ही कर सकता है । इत्यादि प्रकार बार-बार चिन्तन करना अशरणानुप्रेक्षा है । अशरणभावना - देहिनां मरणादिभये संसारे शरणं किमपि नास्तीत्यादिचिन्तनमशरणभावना । (सम्बोधस. वृ. १६, पृ. १८) ।
मरणादि के भय से व्याप्त संसार में रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है, इस प्रकार चिन्तन करने का नाम अशरणभावना है । (देखो अशरणानुप्रेक्षा ) । अशरीर - जेसि शरीरं णत्थि ते अशरीरा । के ते ?
१४६, जैन - लक्षणावली
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[ अशुद्ध चेतना
१४, पृ. २३८ ) ; अट्ठसरीरा णाम । ( धव. पु.
परिणिव्वा । ( धव. पु. कम्म-कवचादो णिग्गया १४, पृ. २३६) । जिनके शरीर का सम्बन्ध सदा के लिए छूट चुका है, और जो आठ कर्म रूप कवच से निकल चूके हैं, ऐसे सिद्ध परमात्मा शरीर कहे जाते हैं । अशुचित्व - प्रनुप्रेक्षा - १. शरीरमिदमत्यन्ताशुचियोनि शुक्रशोणिताशुचिसंवर्धितमवस्करवदशुचिभाजनं त्वङ्मात्र प्रच्छादितमतिपूतिरसनिष्यन्दिस्रोतो
बिलमङ्गारवदात्मभावमाश्रितमप्याश्वेवापादयति । स्नानानुलेपन- धूपप्रघर्ष - वास- माल्यादिभिरपि न शक्यमशुचित्वमपहर्तुमस्य । सम्यग्दर्शनादि पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यन्तिकीं शुद्धिमाविर्भावयतीति तत्त्वतो भावनमशुचित्वानुप्रेक्षा । ( स. सि. ६-७ ) । २. शरीरस्याद्युत्तराशुभकारणत्वादिभिरशुचित्वम् । (त. वा. ६, ७, ६) । ३. प्रशुभकारणत्वादिभिरशुचित्वम् । (त. इलो. ६-७ ) । ४. शरीरस्याऽशुचिकारण-कार्यस्वभावत्वमशुचित्वम् । (त. सुखबो. ६–७) ।
१ वीर्य व रुधिर से वृद्धिगत यह शरीर पुरीषालय ( टट्टी) के समान अपवित्रता को उत्पन्न करने वाला है । चर्म से प्राच्छादित होकर निरन्तर मलमूत्रादि को वहाने वाले इस शरीर की अपवित्रता स्नान और सुगन्धित उपटन आदि से भी दूर नहीं की जा सकती है । जीव की प्रात्यन्तिक शुद्धि को सम्यग्दर्शनादि हो प्रगट कर सकते हैं। इस प्रकार निरन्तर विचार करना, यह प्रशुचित्व- श्रनुप्रेक्षा है । इसे शुचि भावना भी कहते हैं । अशुद्ध-उपयोग-उपयोगो हि जीवस्य परद्रव्यसंयोगकारणमशुद्धः । ( प्रव. सा. अमृत. वृ. २-६४ )। पर द्रव्य के संयोग के कारणभूत जीव के उपयोग को शुद्धोपयोग कहते हैं ।
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श्रशूद्ध - ऋजुसूत्रनय - जो सो सुद्धो उजुसुदनो सो चक्खुपासियतेंजणपज्जयविसश्रो । ( धव. पु. ६, पृ. २४४) ।
जो चक्षु इन्द्रिय से स्पृष्ट- उसके द्वारा देखी गईव्यंजन पर्याय को विषय करता है उसे प्रशुद्ध ऋजुसूत्रनय कहते हैं ।
अशुद्ध
'चेतना - १. कार्यानुभूतिलक्षणा कर्मफलानुभूतिलक्षणा चाशुद्धचेतना । (पंचा. का. अमृत. वू.
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