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शुद्ध द्रव्यनैगम ]
१६ ) । २. XXX अशुद्धात्मकर्मजा || ( पञ्चाध्यायी २ - १६३) । कार्यानुभूति और कर्मफलानुभूति को अशुद्ध चेतना कहते हैं।
१५०, जैन - लक्षणावली
अशुद्ध द्रव्यनैगम - यस्तु पर्यायवद् द्रव्यं गुणवद्वेति निर्णयः । व्यवहारनयाज्जातः सोऽशुद्धद्रव्यनैगमः ॥ (त. श्लो. १, ३३, ३६) ।
द्रव्य पर्याय वाला अथवा गुण वाला है, इस प्रकार जो व्यवहार नय के श्राश्रित निर्णय होता है उसे श्रशुद्धद्रव्यनैगम नय कहते हैं ।
अशुद्ध द्रव्यलक्षण -- सर्वद्रव्यविशेषेषु च द्रव्यं द्रव्यमित्यनुगत बुद्धि-व्यवहाराभिधान निबन्धनद्रव्योपाधि तदेवाशुद्धद्रव्यलक्षणम् । (स्या रह. वृ. पृ. १० ) 1 सर्व द्रव्यविशेषों में 'यह द्रव्य है, यह द्रव्य है इस प्रकारको अनुगत बुद्धि, व्यवहार और वचन की कारण जो द्रव्य उपाधि है यही अशुद्ध द्रव्य का लक्षण है ।
अशुद्धद्रव्य - व्यञ्जनपर्यायनगम - विद्यते चापरोशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्ययो । श्रर्थीकरोति यः सोऽत्र ना गुणीति निगद्यते ॥ (त. श्लो. १,३३,४६) । जो नैगम नय शुद्ध द्रव्य और व्यञ्जन पर्याय को विषय करता है उसे अशुद्ध द्रव्य व्यञ्जनपर्याय नैगमन कहते हैं । जैसे मनुष्य गुणी है। यहां पर गुणवान् श्रशुद्ध द्रव्य है और मनुष्य व्यञ्जनपर्याय है । कथञ्चित् श्रभेदरूप से दोनों को यह नय जानता है । शुद्ध द्रव्याथिक या अशुद्ध द्रव्यास्तिक नय१. अशुद्धद्रव्यार्थिकः पर्यायकलङ्काङ्कितद्रव्यविषय: व्यवहारः । ( जयध. पु. १, पृ. २१९ ) । २. अशुद्धस्तु द्रव्यार्थिको व्यवहारनयमतार्थावलम्बी एकान्तनित्यचेतनाऽचेतन वस्तुद्वय प्रतिपादक सांख्यदर्शनाश्रितः । सम्मतित. वृ. गा. ३, पृ. २८० ) । ३. व्यवहारनयमतार्थावलम्वी शुद्धद्रव्यास्तिको नयश्च द्वैतप्रतिषादनपरः, भेदकल्पनासापेक्षो ह्यशुद्धद्रव्यास्तिक इति बोध्यम् । (स्या. रह. वृ. पृ. १० ) । ४. कर्मोपाधिसापेक्षोऽसावशुद्धद्रव्यार्थिकः, यथा क्रोधादिकर्मजभाव आत्मा । उत्पाद व्ययसापेक्षोऽसावशुद्धद्रव्यार्थिकः यथैकस्मिन् समये द्रव्यमुत्पाद-व्यय- ध्रौव्ययुक्तम् । भेदकल्पनासापेक्षोऽसावशुद्धद्रव्यार्थिकः यथात्मनोदर्शनज्ञानादयो गुणा: । ( नयप्रदीप २, पृ. ६६१) । १ पर्यायरूप कलंक से मलिनता को प्राप्त हुए द्रव्य
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[ अशुभ क्रिया
को विषय करने वाला जो व्यवहार है उसे प्रशुद्धद्रव्यार्थिकनय कहते हैं । २ व्यवहारनय के विषयभूत पदार्थ का श्राश्रय लेकर जो सांख्यमत में चेतन पुरुष और प्रचेतन प्रकृति इन दो तत्त्वों का एकान्त रूप से कथन किया गया है, यह श्रशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के आश्रित है ।
शुद्ध पर्यायार्थिकनय - प्रशुद्धपज्जवट्ठिए वंजणपज्जायपरतंते सुहुमपज्जायभेदेहिं णाणत्तमुबगए XXX 1 ( धव. पु. १३, पृ. १६६ - २०० ) । जो व्यञ्जनपर्याय के वशीभूत हो — उसे विषय करता है - वह अशुद्ध पर्यायार्थिकनय कहलाता है । अशुद्ध भाव - १. ग्रन्यश्चोपाधिकः स्मृतः । ( द्रव्यानु. १२-८) । २. अन्योऽशुद्धभाव चौपाधिकः, उपाधिजनितबहिर्भावपरिणमनयोग्यता शुद्धस्वभावता । (द्रव्यानु. टी. १२-९) । उपाधि (स्वाभाविक धर्म) से उत्पन्न होने वाले बाहिरी भावों को अशुद्ध भाव कहते हैं । अशुद्ध संग्रह - १. होइ तमेव श्रशुद्धो इगजाइ विसेसग्रहणेण ॥ (ल. न. च. ३६) । २. तथा द्रव्यमिति घट इति च द्रव्यत्व घटत्वावान्तरसामान्येन सकलजीवादिद्रव्य-सौवर्णादिघटव्यक्तीनां संग्रहणादशुद्धसंग्रहो विज्ञेयः । (त. सुखबो. १ - ३३ ) । १ जो किसी एक जातिविशेष को ग्रहण करे उसे शुद्ध संग्रहनय कहते हैं । २ द्रव्यत्व या घटत्वरूप अवान्तर सामान्य के द्वारा जो सकल जीवादि द्रव्यों को और सुवर्णादिमय घट व्यक्तियों को ग्रहण करता है वह अशुद्ध संग्रहनय कहलाता है । अशुद्ध सद्भूतव्यवहार - अशुद्धगुण-गुणिनोरशुद्धद्रव्य-पर्याययोर्भेदकथनमशुद्धसद्भूतव्यवहारः । (नयपृ. १०२; द्रव्यानु. टी. ७-४ ) । अशुद्ध गुण गुणी के और अशुद्ध द्रव्य पर्याय के भेदकथन को शुद्ध सद्भूतव्यवहार कहते हैं । अशुभ काययोग - १. प्राणातिपाताऽदत्तादानमैथुनप्रयोगादिरशुभः काययोगः । ( स. सि. ६-३; त. वा. ६, ३, १; त सुखबो ६-३; त. वृत्ति श्रुत. ६-३ ) । २. हिंसाऽब्रह्मचौर्यादि काये कर्माशुभं विदुः । ( उपासका ३५४ ) । हिंसा, चोरी और
प्रदीप
मैथुनसेवन श्रादि काय सम्बन्धी शुभ क्रियाओं को शुभ काययोग कहते हैं । अशुभ क्रिया- ज्ञान-दर्शन- चारित्र तपसामतीचारा
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