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अष्टम धरा]
१५३, जैम-लक्षणावली
[असत्य मनोयोग
तानि मायाकर्मदलिकानि पूर्वबद्धसंज्वलनलोभदलि- जिस वचन में स्वकीय द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से विद्यकानि वा तानि बध्यमानस्वरूपतस्तत्कालबध्यमान- मान भी वस्तु का उसी स्वकीय द्रव्य-क्षेत्र-कालसंज्वलनलोभरूपतया । किमुक्तं भवति ? तत्काल- भाव से निषेध किया जाता है वह प्रथम असत्य बध्यमानसंज्वलनलोभस्पर्द्धकानां चात्यन्तं नीरसानि है। जैसे देवदत्त के अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव यत्र करोति सा प्रश्वकर्णकरणाद्धा । (पंचसं. मलय. से रहते हुए भी यह कहना कि यहां देवदत्त वृ.७५)।
नहीं है। प्रश्वकर्णकरण के काल को अश्वकर्णकरणाद्धा कहते असत्य (द्वितीय)-असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रहैं। जिस काल में विद्यमान मायाकषाय के प्रदेश- काल-भावस्तैः । उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन् पिण्ड को संक्रान्त करते हुए बध्यमान संज्वलन यथास्ति घटः ।। (पु. सि. ६३)। लोभ के स्पर्धकों स्वरूप किया जाता है, वह अश्व- जो वस्तु परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से असत् है उसे कर्णकरणाद्धा कहलाता है।
उक्त परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से सत् कहना, यह अष्टम धरा-देखो ईषत्प्राग्भार । तिहवण- असत्य वचन का दूसरा भेद है। जैसे घटस्वरूप से मुड्ढारूढा ईसिपभारा घरटुमी रुंदा। दिग्घा इगि- घट के न होने पर भी यह कहना कि 'यहाँ घट है। सगरज्जू अडजोयणपमिदबाहल्ला ।। (त्रि. सा. असत्य (तृतीय)-वस्तु सदपि स्वरूपात् पररूपे
णाभिधीयते यस्मिन् । अन्तमिदं च तृतीयं विज्ञेयं लोक के शिखर पर जो एक राजु चौड़ी, सात राजु गौरिति यथाश्वः ।। (पु. सि. ६४)। लम्बी और पाठ योजन ऊँची पाटी पृथिवी है। स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से विद्यमान पदार्थ को परउसे अष्टम धरा कहते हैं।
द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से सत् कहना, यह असत्य का असतीपोष-१. सारिका-शुक-मारि-श्व-कुर्कुट- तीसरा भेद है । जैसे गाय को घोड़ा कहना । कलापिनाम् । पोषो दास्याश्च वित्तार्थमसतीपोषणं असत्य (चतुर्थ) - गहितमवद्यसंयुतमप्रियमपि विदुः ॥ (त्रि. श. पु. च. ६, ३, ३४७; योगशा. भवति बचनरूपं वत् । सामान्येन त्रेधा मतमिदमनृतं ३-११२)। २. असतीपोष: प्राणिघ्नप्राणिपोषो तुरीयं तु ।। पैशून्यहासगर्भ कर्कशमसमंजसं प्रलपितं भाटिग्रहणार्थ दासपोषश्च । (सा. ध. स्वो. टी. च । अन्यदपि यदुत्सूत्र तत् सर्वं गहितं गदितम् ।। ५-२२)।
छेदन-भेदन-मारण-कर्षण-वाणिज्य - चौर्यबचनादि । १ हिंसक प्राणियों-जैसे मैना, तोता, बिल्ली, कुत्ता, तत् सावधं यस्मात् प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते ।। अरतिमर्गा व मोर प्रादि-को पालना तथा भाडा प्राप्त कर भीतिकरं खेदकरं वैर-शोक-कलहकरम् । यदकरने के लिए दासी का भी पोषण करना असतीपोष परमपि तापकरं परस्य तत् सर्वमप्रियं ज्ञेयम् ।। (पु. कहलाता है।
सि. ९५-९८)। प्रसत्-प्रतो (सतो)ऽन्यदसत् । (त. भा. ५-२६)। गहित, सावद्य और अप्रिय वचनों को बोलना; यह उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य स्वरूप सत् से विपरीत असत असत्य का चौथा भेद है। प्रागम विरुद्ध जो भी कहलाता है।
पिशनता व हास्य आदि से गभित, कठोर और असत्प्रतिपक्षत्व-तादृशसमबलप्रमाणशन्यत्वमसत्- असमंजस (अयोग्य) वचन हो वह गहित कहलाता प्रतिपक्षत्वम् । (न्यायदी. पू. ८५)।
है । जिस वचन के आश्रय से प्राणी के शरीर के साध्य के प्रभाव के निश्चय कराने वाले समान छेदने-भेदने, बघ करने तथा कृषि कार्य, व्यापार और बलयुक्त अन्य प्रमाण के प्रभाव को असत्प्रतिपक्षत्व चोरी आदि में प्रवृत्ति हो; उसे सावद्य कहते हैं। कहते हैं।
जो वचन अप्रीति, भय, खेद, वैरभाव, शोक और असत्य (प्रथम)--स्वक्षेत्र-काल-भावैः सदपि हि लड़ाई-झगड़ा कराने वाला हो उसे तथा और भी जो यस्मिन् निषिध्यते वस्तु । तत् प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति सन्तापजनक वचन हो उसे अप्रिय कहा जाता है । यथा देवदत्तोऽत्र । (पु. सि. ६२)।
असत्य मनोयोग --१. xxx तविवरीमो ल. २०
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