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अशोभन]
१५२, जैन-लक्षणावली
[अश्वकणकरणाद्धा
नोग्रताचरणे च प्रवृत्तो ऽशभोपयोगः । प्रव. सा. प्रश्लोकभय-'इलोकः श्लाघायाम्' श्लोकनं श्लोकः अमृत. व. २-६६)। ३. उपयोगोऽशभो राग-द्वेष- श्लाघा प्रशंसा, तद्विपर्ययोऽश्लोकः, तस्माद् भयम् मोहैः क्रियाऽऽत्मनः । (अध्या. रह. ५६)। अश्लोकभयम् । (प्राव. भा. हरि. वृ. १८४, पृ. १ विषय-कषाय से प्राविष्ट जो तीव्र उपयोग राग- ४७३) । १. 'श्लोकृङ् श्लाघायाम्' श्लोक: प्रशंसा द्वषोत्पादक मिथ्या शास्त्रों के सनने, दान करने श्लाघा, तद्विपर्ययोऽश्लोकः, तस्माद् भयम् अश्लोकऔर दूषित पाचरण करने वाले मिथ्यादष्टियों के भयम् । (प्राव. भा. मलय. वृ. १८४, पृ. ५७३)। सहवास में रहने रूप उन्मार्ग में प्रवृत्त होता है उसे देखो अश्लाघाभय । प्रशभोपयोग कहते हैं। उस उपयोगस्वरूप जीव को अश्वकर्णकरण (अस्सकण्णकरण)-देखो प्रादोलभी अभेद विवक्षा में अशुभोपयोग कहा जाता है। करण । १. अस्सकण्णकरणत्ति व
करण । १. अस्सकण्णकरणेत्ति वा पादोलकरणेत्ति वा अशोभन-अशोभनं गर्वादिदूषितं वचनम् ।
मोवट्टण-उव्वट्टणकरणेत्ति वा तिण्णि णामाणि अस्स(बृहत्क. वृ. ७५३)।
कण्णकरणस्स। (कसायपा. चू. ४७२, पृ. ७८७; अहंकार आदि दोषों से दूषित वचन को अशोभन
धव. पु. ६, पृ. ३६४) । २. अश्वस्य कर्णः अश्वकर्णः, वचन कहते हैं। ऐसे अशोभन वचन का बोलने वाला
अश्वकर्णवत्करणमश्वकर्णकरणम् । यथाश्वकर्ण अग्राअसत्प्रलापी भाषाचपल कहलाता है।
त्प्रभृत्या मूलात् क्रमेण हीयमानस्वरूपो दृश्यते, तथेद
मपि करणं क्रोधसंज्वलनात् प्रभृत्या लोभसंज्वलनाद्यअश्रुतनिश्रित-१. यपुत्नः पूर्वं तदपरिकर्मितमतेः
थाक्रममनन्तगुणहीनानुभागस्पर्धकसंस्थानव्यवस्थाकर. क्षयोपशमपटीयस्त्वात् प्रौत्पत्तिक्यादिलक्षणमुपजायते
णमश्वकर्णकरणमिति लक्ष्यते । (धव. पु. ६, दि. ५)। तदश्रुतनिश्रितमिति । (प्राव. नि. हरि. वृ. १, पृ.६)।
२ जिस प्रकार घोड़े का कान अग्र भाग से मूल भाग २. यत् प्रायः श्रुताभ्यासमन्तरेणापि सहजविशिष्ट
पर्यन्त उत्तरोत्तर हीन दिखायी देता है उसी प्रकार क्षयोपशमवशादुत्पद्यते तदश्रुतनिश्रितमौत्पत्तिक्यादि
जिस करण (परिणामविशेष) के द्वारा संज्वलन बुद्धिचतुष्टयम् । (कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ४, पृ. १०)। क्रोध से संज्वलन लोभ तक अनुभागस्पर्धकों की ३. प्रायः श्रुताभ्यासमन्तरेणापि यत्सहजविशिष्टक्ष
व्यवस्था उत्तरोत्तर होन होती हई की जाती है उसे योपशमवशादत्पद्यते तदश्रुतनिश्रितम । (प्रव. सारो.
प्रश्वकर्णकरण कहते हैं। अश्वकर्णकरण, पादोलकरण वृ. १२५३)।
और अपवर्तनोद्वर्तनाकरण ये तीनों एकार्थक नाम २ शास्त्राभ्यास के बिना ही स्वाभाविक विशिष्ट
हैं। आदोल नाम हिंडोला का है। जिस प्रकार क्षयोपशम के वश जो औत्पत्तिकी प्रादि चार बद्धि
हिडोले का स्तम्भ और रस्सी के अन्तराल में स्वरूप विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न होता है उसे अश्रुत- विकोण प्राकार घोडे के कान सदश दिखता है, निश्रित प्राभिनिबोधिक मतिज्ञान कहते हैं।
इसी प्रकार यहाँ पर भी क्रोधादि संज्वलन कषाय के अश्रुपात अन्तराय-xxx अश्रुपातः शुचा- अनुभाग का सन्निवेश भी क्रम से घटता हुआ त्मनः ॥ पातोऽश्रूणां मृतेऽन्यस्य क्वापि वाक्रन्दतः दिखता है, इसलिए इसे प्रादोलकरण कहते हैं। श्रुतिः । (अन. ध. ५, ४५-४६)।
क्रोधादि कषायों का अनुभाग हानि-वृद्धि रूप से शोक से स्वयं अश्रपात होना तथा किसी के मर जाने दिखाई देने के कारण इसको अपवर्तनोद्वर्तनाकरण पर अन्य व्यक्ति के प्राक्रन्दन को सुनकर या मर भी कहते हैं। जाने पर शोकाकुल मनुष्य के अाँसुओं के गिरने अश्वकर्णकरणाद्धा (अस्सकण्णकरणद्धा)-१. को अश्रुपात कहते हैं। यह एक भोजन का अन्त- संताणि बज्झमाणगसरूवो फड्डगाणि जं कुणइ । राय है।
सा अस्सकण्णकरणद्ध xxx॥ (पंचसं. उपश. प्रश्लाघाभय - अश्लाघाभयम् अकीर्तिभयम । ७५)। २. सन्ति विद्यमानानि मायाकर्मदलानि (ललितवि. पं. पृ. ३८)।
बध्यमानसंज्वलनलोभस्वरूपेण फड्डकानि यत्कअकीर्ति या अपकीर्ति के भय को अश्लाघाभय रोति साऽश्वकर्णकरणाद्धा प्रथमा भण्यते । (पंचसं. कहते हैं।
स्वो.व. उपश. ७५)। ३.विद्यमानानि यानि संक्रमि
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