Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 256
________________ अव्याप्त, अव्याप्ति] १४७, जैन-लक्षणावली [अशरणानुप्रेक्षा अन्य किसी भी कारण के द्वारा बाधा जिसके विवक्षित अर्थ की सम्यक सिद्धि होने तक निरन्तर सम्भव नहीं है उसे अव्याघात कहते हैं। स्वरूप से वचनों का प्रयोग करने को अव्युच्छेदित्व अव्याप्त, अव्याप्ति-१. लक्ष्यैकदेशवर्तित्वमव्या- कहते हैं। यह ३५ सत्यवचनातिशयों में अन्तिम है। प्ति: कीर्तिता बुधैः । यथा जीवस्य देहत्वमसिद्धं पर- अव्युत्पन्न-१. गृहीतोऽगृहीतोऽपि वार्थो यथावदनिमात्मनि ।। (मोक्षपं. १६) । २. लक्ष्यैकदेशवृत्त्याव्या- श्चितस्वरूपोऽव्युत्पन्नः। (प्र. क. मा. ३-२१, पृ. प्तम् । यथा गोः शावलेयत्वम् । (न्यायदी. पृ. ७)। ३६६)। २. अव्युत्पन्नं तु नाम-जाति-संख्यादि२ जो लक्षण लक्ष्य के एक देश में रहे उसे अव्याप्त विशेषापरिज्ञानेनानिर्णीतविषयानध्यवसायग्राह्यम् । -अव्याप्ति दोष से दूषित-कहा जाता है। (प्र. र. मा. ३-२१)। अव्याबाध-न विद्यते विविधा कामादिजनिता १ गृहीत अथवा अगृहीत पदार्थ का जब तक यथार्थ पा समन्ताद् बाधा दुःखं येषां ते अव्याबाधाः । (त. स्वरूप निश्चित नहीं हो जाता, तब तक उसे अव्यवृत्ति श्रुत. ४-२५)। त्पन्न कहा जाता है। जिनके काम-विकारादि जनित बाधाएँ नहीं होती अशबल-निरतिचारत्वादशबलः । (त. भा. सिद्ध. ऐसे लौकान्तिक देव अव्याबाध नाम से कहे जाते हैं। वृ. 8-४६, पृ. २८६)। अव्याबाध सुख--१. अणुवमममेयमक्खयममलम- अतिचार से रहित स्नातक मुनि को अशबल कहा जरमरुजमभयमभवं च । एयंतियमच्चंतियमव्याबाधं जाता है । यह स्नातक के पांच भेदों में दूसरा है। सुहमजेयं । (भ. प्रा. २१५३) । २. सहजशद्धस्वरू- अशबलाचार-अभ्याहृतादिपरिहारी अशबलापानुभवसमुत्पन्नरागादिविभावरहितसुखामृतस्य यदे- चारः । (व्यव. भा. मलय. वृ. ३-१६४, पृ. ३५) । कदेशसंवेदनं कृतं पूर्व तस्यैव फलभूतमव्याबाधमन- अभ्याहृत प्रादि दोषों का परिहार करने वाले साधु न्तसुखं भण्यते । (बृ. द्रव्यसं. १४)। ३. वेदनीयकर्मो- के चारित्र को अशबलाचार कहते हैं। दयजनितसमस्तबाधारहितत्वादव्याबाधगुणश्चेति । अशब्दलिंगज श्रुत-धूमलिंगादो जलणावगमो (परमात्मप्र. टी. ६१)। असलिंगजो। (धव. पु. १३, पृ. २४५)। १ अनुपम, अपरिमित (अनन्त), अविनश्वर, कर्म- अन्यथानुपपत्ति रूप लिंग से होने वाले ज्ञान को मल के सम्बन्ध से रहित, जरा से विहीन, रोग से प्रशब्दलिंगज श्रुत कहा जाता है। जैसे-धूम लिंग उन्मुक्त, भय से विरहित, संसार से अतीत, ऐका- से होने वाला अग्नि का ज्ञान । न्तिक, प्रात्यन्तिक और अजेय ऐसे बाधारहित अशरणानुप्रेक्षा-१. मणि-मंतोसह-रक्खा हय-गयमुक्तिसुख को अव्याबाध सुख कहा जाता है। रहयो य सयलविज्जाओ। जीवाणं ण हि सरणं अव्याहत-इह ऐकान्तिकमिह परलोकाविरुद्धं फला- तिसु लोए मरणसमयम्हि ॥ सग्गो हवे हि दुग्गं न्तराबाधितं वाऽब्याहतमुच्यते । (प्राव. नि. हरि.व भिच्चा देवा य पहरणं वज्जं । अइरावणो गइंदो मलय. व. ६३६)। इंदस्स ण विज्जदे सरणं ।। णवणिहि चउदहरयणं जो इहलोक और परलोक के विरोधसे सर्वथा रहित हय-मत्तगइंद-चाउरंगबलं । चक्केसस्स ण सरण हो उसे अव्याहत कहा जाता है। पेच्छंतो कहिये काले । जाइ-जर-मरण-रोग-भयदो अव्याहतपौर्वापर्य-अव्याहतपौर्वापौर्यत्वं पूर्वापर- रक्खेदि अप्पणो अप्पा । तम्हा आदा सरणं बंधोदयवाक्याविरोधः । (समवा. अभय. व. ३५, रायप. सत्तकम्मवदिरित्तो॥ (द्वादशानु. ८-११) । २. हयवृ.पृ. १६)। गय-रह-णर-बल-वाहणाणि मंतोसधाणि विज्जायो। जो वचन पूर्वापर कथन से अविरुद्ध हो वह अव्या- मच्चुभयस्स ण सरणं णिगडी णीदी य णीया य ।। हतपौर्वापौर्य वचन कहलाता है। यह वचन के ३५ जम्म-जरा-मरण-समाहिदम्हि सरणं ण विज्जदे लोए। अतिशयों में नौवां है। जर-मरण-महारिउवारणं तु जिणसासणं मुच्चा ॥ अव्युच्छेदित्व - अव्युच्छेदित्वं विवक्षितार्थानां मरणभयम्हि उवगदे देवा वि सईदया ण तारंति । सम्यसिद्धि यावत् अनवच्छिन्नवचनप्रमेयता । धम्मो ताणं सरणं गदि त्ति चितेहि सरणतं । (समवा. अभय. वृ. ३५)। . (मूला. ८, ५-७)। ३. यथा मृगशावकस्यकान्ते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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