Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 255
________________ श्रव्यक्त दोष ] दशमो दोषः (त. वा. ६, २२, २) । ३. परगृहीतस्यैव प्रायश्चित्तस्याऽनुमतेन स्वदुश्चरितसंवरणं ( दशमो दोषः) । (त. श्लो. - २२ ) । ४. यत्किचित्प्रयोजनमुद्दिश्यात्मना समानायैव प्रमादाचरितमावेद्य महदपि गृहीतं प्रायश्चित्तं न फलकरमिति नवमोऽव्यक्तदोषः । (चा. सा. पृ. ६१-६२ ) । ५. स्वसमानज्ञान- तपोबालस्यालोचनं भवेत् । अव्यक्तं ह्री- भयप्रायश्चित्तभीत्या दिहेतुत: । ( श्राचा. सा. ६-३६) । ६. अव्यक्तः प्रायश्चित्ताद्यकुशलो यस्तस्यात्मीयं दोषं कथयति यो लघुप्रायश्चित्तनिमित्तं तस्याव्यक्तनाम नवमम् । (मूला. वृ. ११-१५ ) ७. अव्यक्तोऽगीतार्थः तस्याव्यक्तस्य गुरोः पुरतो यदपराधालोचनं तदव्यक्तमेव नवमः ( श्रव्यक्तः ) प्रालोचनादोषः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १-३४२, पृ. १६ ) । ८. अव्यक्तं प्रकाशयति दोषम्, स्फुटं न कथयतीत्यव्यक्तदोषः । ( भावप्रा. टी. ११८ ) । १ मैंने मन, वचन और काय से स्वयं किये गये, कराये गये व श्रनुमत इस सब दोष की आलोचना कर ली है; सो यह जानता है। इस प्रकार ज्ञानबाल या चारित्रबाल के पास श्रालोचना करना, यह श्रीलोचना का श्रव्यक्त नामका दोष है । २ मेरा अपराध इसके अपराधके समान है, उसे यही जानता है । इसे जो प्रायश्चित्त दिया गया है वही मेरे लिये योग्य है, इस प्रकार अपने अपराध को प्रगट न करना, इसे प्रालोचना का श्रव्यक्त नामक दोष कहा जाता है । आलोचना के दस दोषों में इसका कहीं नौवें और कहीं दसवें भेद रूप में उल्लेख हुआ है। श्रव्यक्तबालमरण – १. अव्यक्तः शिशुर्धर्मार्थकामकार्याणि यो न वेत्ति, न च तदाचरणसमर्थशरीरः सोऽव्यक्तबालः, तस्य मरणमव्यक्त बालमरणम् । (भ. प्रा. टी. २५) । २. धर्मार्थ कामकार्याणि न वेत्ति न तदाचरणसमर्थशरीरोऽव्यक्तवालः । [तस्य मरणमव्यक्त बालमरणम् । ] ( भावप्रा श्रुत. टी. ३२ ) । जो धर्म, अर्थ और कामरूप कार्यों को न जानता है और न जिसका शरीर उसके श्राचरण करने में समर्थ है; उसे अव्यक्त बाल कहते हैं। ऐसे व्यक्ति के मरण को व्यक्तवालमरण कहते हैं । अव्यक्तमन - कार्ये कारणोपचाराच्चिन्ता मनः, व्यक्तं निष्पन्नं संशय-विपर्ययानध्यवसायविरहितं Jain Education International १४६, जैन-लक्षणावली [ व्याघात मनः येषां ते व्यक्तमनसः । नि व्यक्तमनसः श्रव्यक्तमनस: ।] ( धव. पु. १३, पृ. ३३७ ) । कार्य में कारण का उपचार करके यहां मन शब्द से चिन्ता का अभिप्राय लिया गया है। जिनका मन व्यक्त नहीं है. श्रर्थात् संशय, विपर्यय व श्रनध्यवसाय से रहित नहीं है उन्हें अव्यक्तमन कहा जाता है। ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान ऐसे श्रव्यक्तमन जीवों की संज्ञा श्रादि को नहीं जानता है । अव्यक्तमिथ्यात्व — ग्रव्यक्तं मोहलक्षणम् । ( गुण. *मा. ६, पृ. ३) । मोहस्वरूप मिथ्यात्व को श्रव्यक्तमिथ्यात्व कहते हैं । अव्यक्तेश्वर दोष यदाऽव्यक्तेश्वरेण वारितं गृह्णाति तदाऽव्यक्तेश्वरो नाम । (अन. घ. स्वो. टी. ५-१५) । जिस दान का स्वामी कोई अव्यक्त - श्रप्रेक्षापूर्वकारी या बालक - हो, उसके द्वारा वर्जित श्राहारादि के ग्रहण करने पर श्रव्यक्तेश्वर नाम का निषिद्ध उद्गम दोष होता है । अव्यय - श्रव्ययो लब्धानन्तचतुष्टयस्वरूपादप्रच्युतः । ( समाधिशतक ६) । अनन्त चतुष्टयरूप स्वरूप के प्राप्त करने पर जो फिर उससे च्युत नहीं होता है उसे श्रव्यय कहते हैं । अव्याकृता ( भाषा) 1- १. अव्याकृता चैत्र अस्पष्टाप्रकटार्था । ( दशवं. हरि. वृ. नि. ७-२७७; श्राव. ह. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ८० ) । २. श्रव्याकृता प्रतिगम्भीरशब्दार्था अव्यक्ताक्षरप्रयुक्ता वा । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ११ - १६६ ) । ३. गंभीर महत्था श्रवोअडा ग्रहव अव्वत्ता । ( भाषार. ७६ ) ; प्रतिगम्भीगे दुर्ज्ञान [त ] तात्पर्यो महान् ग्रर्थो यस्याः साऽव्याकृता भवति । अथवा बालादीनामव्यक्ता भाषाऽव्याकृता भवति । ( भाषार. टी. ७६ ) । ३ जिसका अर्थ कठिनता से जाना जाता है ऐसी भाषा को व्याकृता कहते हैं । अथवा बालक श्रादि की अव्यक्त भाषा को श्रव्याकृता जानना चाहिये । व्याघात -- १. न विद्यते प्रत्ययान्तरेण व्याघातो बाधास्येत्यव्याघातम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. २१०४) । २. नास्ति प्रत्ययान्तरेण व्याघातो निखिलद्रव्य पर्यायसाक्षात्कारप्रतिबन्धो यस्य तदव्याघातम् । ( भ. प्रा. मूला. टी. २१०४) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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