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अपर्याप्त ६७, जैन-लक्षणावली
[अपलाप मित नहीं किया है वह अपरीतसंसार या संसारा- अपज्जत्तणामसण्णा । (धव. पु. ६, पृ. ६२)। परीत कहलाता है। वह अनादि-अपर्यवसित और - २. ता एव षड़ यथास्वं शक्तयो विकला अपर्याप्तसादि-सपर्यवसित के भेद से दो प्रकारका है। यस्ता यस्योदयाद् भवन्ति तदपर्याप्तकनाम । जिसका संसार अनादि होकर कभी अन्त को प्राप्त (कर्मस्त. गो. व. ९-१०: शतकप्र. मल. हे. व. होने वाला नहीं है-जैसे अभव्य जीव का - वह ३८, पृ. ५०)। ३. यदुदयाच्च स्वयोग्यपर्याप्तिअनादि-अपर्यवसित अपरीतसंसार कहलाता है। परिसमाप्तिसमर्थो न भवति तदपर्याप्तकनाम । और जिसका संसार अनादि होकर भी अन्त को (प्रव. सारो टी. गा. १२६४, पृ. ३६५)। ४. प्राप्त होने वाला है-जैसे भव्य जीव का-उसका यदुदयात स्वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकला नाम अनादि-सपर्यवसित अपरीतसंसार है।
जन्तवो भवन्ति तदपर्याप्तनाम । (कर्मवि. दे. स्वो. अपर्याप्त-१. अपयप्तिा आहार-शरीरेन्द्रिय- वृ. ५०)। ५. पर्याप्तकनामविपरीतमपर्याप्तकनाम प्राणापान-भाषा-मन:पर्याप्तिभी रहिताः । (श्रा. प्र. यदुदयात् स्वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिसमर्थो न भवति । टी. ७०)। २. अपर्याप्तकनामकर्मोदयादनिष्पन्न- (कर्मवि. मलय. व. ५)। ६. अपर्याप्तकनाम उक्तपर्याप्तियोगादपर्याप्तास्त एवापर्याप्तका इति। विपरीतम्-यदुदयात् सम्पूर्णपर्याप्त्यनिष्पत्तिर्भवति । (नन्दी. हरि. वृ. पृ. ४४)। ३. अपर्याप्तनामकर्मो- (धर्मसं. मलय. वृ. गा. ६१९)। ७. षड्विधपर्यादयजनितशक्त्याविर्भावितवृत्तयः अपर्याप्ताः । (धव. प्त्यभावहेतुरपर्याप्तनाम । (भ. प्रा. मला. टी. पु. १, पृ. २६७); अपज्जत्तणामकम्मोदयसहिद- २१२४) । ८. यस्योदये स्वपर्याप्तिभिरपरिपूर्णो पुढविकाइयादो अपज्जत्ता त्ति घेत्तब्वा, णाणिप्प- भवति, न्यून एव कालं करोति, तदपर्याप्तनाम च
ज्ञातव्यम् । (कर्मवि. पू. व्याख्या ७३, प. ३३)। रीराणं पि गहणप्पसंगादो ।(धव. पु. ३, पृ. ३३१); १ जिस कर्म के उदय से जीव अपनी यथायोग्य अपज्जत्तणामकम्मोदएण अपज्जत्ता भण्णंति । (धव. पर्याप्तियों को पूरा न कर सके, उसे अपर्याप्त नामपु. ६, पृ. ४१६)। ४. तद्विपक्षनामोदयादपर्या- कर्म कहते हैं। प्तकाः । (पंचसं. स्वो. वृ. ३-६)। ५. ये पुनः अपर्याप्ति--एतासां (पर्याप्तीनां) अनिष्पत्तिरस्वयोग्यपर्याप्तिविकलास्ते अपर्याप्ताः । (पंचसं. पर्याप्तिः । (धव. पु. १, पृ. २५६); पर्याप्तीनामर्धमलय. वृ. १-५)। ६. ये पुनः स्वयोग्यपर्याप्ति- निष्पन्नावस्था अपर्याप्तिः। (धव. पु. १, पृ. परिसमाप्तिविकलास्तेऽपर्याप्तकाः। (षडशी. दे. २५७)। स्वो. वृ. २) । ७. अपर्याप्तनामकर्मोदयादपर्याप्तका पर्याप्तियों की अपूर्णता अथवा उनको अर्धपूर्णता ये स्वपर्याप्तीनं पूरयन्तीति । (स्थाना. अभय. वृ. का नाम अपर्याप्ति है। २, १, ७३) । ८. अपर्याप्तकजीवस्तु नाश्नुते वपू:- अपर्याप्तिनाम- १. षडविधपर्याप्त्यभावहेतुरपूर्णताम् । अपर्याप्तकसंज्ञस्य तद्विपक्षस्य पाकतः ।। पर्याप्तिनाम । (स. सि. ८-११; त. वा. ८, ११, (लाटीसं. ५-७६)।
३३; त. इलो. ८-११)। २. अपर्याप्तिनिवर्तकम३ जो पृथिवीकायिक प्रादि जीव अपर्याप्त नाम- पर्याप्तिनाम, (अपर्याप्तिनाम) तत्परिणामयोग्यकर्म के उदय से सहित होते हैं उन्हें अपर्याप्त कहा दलिकद्रव्यमात्मनोपात्तमित्यर्थः । (त. भा. जाता है। जिन जीवों का शरीर पूर्ण नहीं हुआ है, . ८-१२) । ३. यदुदयेन अपरिपूर्णोऽपि जीवो म्रियते उन्हें अपर्याप्त नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अन्यथा तदपर्याप्तिनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। पर्याप्त नामकर्म के उदय में भी जिनका शरीर १ छह प्रकारकी अपर्याप्तियों के अभाव का जो पूर्ण नहीं हुआ है उनके भी अपर्याप्त होने का कारण है उसे अपर्याप्ति नामकर्म कहते हैं। प्रसंग प्राप्त होता है।
अपलाप-१. कस्प्रचित्सकाशे श्रुतमधीत्यान्यो गुरुअपर्याप्तनाम-१. जस्स कम्मस्स उदएण जीवो रित्यभिधानमपलापः । (भ. प्रा. विजयो. टी. ११३)। पज्जत्तीग्रो समाणेदुं ण सक्कदि तस्स कम्मस्स किसी के पास में प्रागम को पढ़कर अन्य गुरु का
ल. १३
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