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अरतिरति] १२५, जैन-लक्षणावली
[अरूपी निश्चीयते । (त. वा. ६, ६, ११; चा. सा. पृ. अर्थ अनन्तर–अन्तर से रहित (अनादि) होता ५१) । ३. दुर्वारेन्द्रियवृन्दरोगनिकररादिबाधो- है, अरहस अर्थात् अन्तर से रहित जो अनादि कर्म करैः प्रोद्भूतामरति व्रतोत्करपरित्राणे गुणोत्पोषणे। है, वह अरहस्कर्म कहलाता है। मंक्षु क्षीणतरां करोत्यरतिजिद वीरः स वन्द्यः सतां यो अरिष्ट-न विद्यते ऽरिष्टम् अकल्याणं येषां ते दण्डत्रयदण्डनाहितमतिः सत्यप्रतिज्ञो व्रती ।। (प्राचा. अरिष्टाः । (त. वृत्ति श्रुत. ४-२५)। सा. ७-१५)। ४. लोकापवादभय-सवतरक्षणा- जिनके अकल्याण-जनक कोई वस्तु न पाई जावे क्षरोधक्षुदादिभिरसह्यमुदीर्यमाणाम् । स्वात्मोन्मुखो उन लोकान्तिक देवों को अरिष्ट कहते हैं। यह धृतिविशेषहृतेन्द्रियार्थतृष्णः शृणात्वरतिमाश्रितसं- लौकान्तिक देवों का एक भेद है। यमश्रीः ॥ (अन. ध. ६-६५)।
अरुण-अरुणः उद्यद्भास्करः, तद्वत्तेजोविराजमानाः १ महावतों का परिपालन करने वाले संयत के अरुणाः
अरुणाः । (त. व
। (त. वृत्ति श्रुत. ४-२५)। अभीष्ट विषयों के प्रति उत्सुकता न रहने से जो वह जो उदित होते हुए सूर्य के समान तेज से सुशोभित गीत, नत्य और वादित्रादि से विहीन शून्य (निर्जन) होते हैं, वे अरुण नामक लौकान्तिक देव कहलाते हैं। गृहादि में रहता हुमा स्वाध्याय व ध्यान में अनु- अरहान रोहन्ति न भवाङ्कुरोदयमासयन्ति, रक्त रह कर कामकथादि के श्रवण आदि से विर- कर्मबीजाभावादिति अरुहाः । (पंचसूत्र व्याख्या २)। हित होता है, यह उसका अरतिपरीषहजय है। कर्मरूपी बीज के विनष्ट हो जाने से जो संसारपरतिरति-अरति: अरतिमोहनीयोदयाच्चित्तोद्वेगः, रूपी अंकुर की उत्पत्ति का प्राश्रय नहीं लेते, अर्थात् तत्फला रतिः विषयेषु मोहनीयाच्चित्ताभिरति: जिनका संसार सदा के लिए नष्ट हो चुका है, उन्हें अरति रतिः । (प्रौपपा. अभय. व. ३४, प. ७६)। अरुह (अरहंत) कहा जाता है। अरतिमोहनीय के उदय से होने वाली चित्तोद्वेगरूप प्ररूप ध्यान-१. अरूपं ध्यायति ध्यानं परं संवेदरति के फलस्वरूप जो विषयों में मन को अनुराग नात्मकम् । सिद्धरूपस्य लाभाय नीरूपस्य निरेनसः। होता है उसे अरतिरति कहा जाता है।
(अमित. श्रा. १५-५६)। २. व्योमाकारमनाकार अरतिवाक्-१. तेषु (शब्दादिविषय-देशादिषु) निष्पन्नं शान्तमच्युतम् । चरमाङ्गात् कियन्न्यून स्वएवारत्युप्पादिका अरतिवाक । (त. वा. १, २०, प्रदेशघनैः स्थितम् ॥ लोकाग्रशिखरासीनं शिवी१२, पृ. ७५; धव. पु. १, पृ. ११७) । २. तेसु भूतमनामयम् । पुरुषाकारमापन्नमप्यमूर्तं च चिन्त(इंदियविसयेसु) अरइउप्पाइया अरदिवाया। (अंग- येत् ॥ निष्कलस्य विशुद्धस्य निष्पन्नस्य जगद्गुरोः । पण्णत्ती पृ. २६२)।
चिदानन्दमयस्योच्चैः कथं स्यात् पुरुषाकृतिः ॥ इन्द्रियविषयों में अरति उत्पन्न करने वाले वचनों विनिर्गतमधूच्छिष्टप्रतिमे मूषिकोदरे । यादृग्गगनको परतिवाक् कहते हैं।
संस्थानं तदाकारं स्मरेद् विभुम् ॥ (ज्ञानार्णव ४०, अरहस्-अरह त्ति अर्हन् अशोकादिमहापूजार्हत्वात्, २२-२५) । अविद्यमानं वा रहः एकान्तं प्रच्छन्नं सर्वज्ञत्वाद् यस्य १ रूपरहित (अमूर्तिक) निर्मल सिद्धस्वरूप की प्राप्ति सोऽरहाः । (औपपा. अभय. व. १०, पृ. १५)। के लिए रूपादि से रहित और पाप-पंक से वियुक्त अशोकादि पूजा के जो योग्य हैं वे अर्हन कहलाते हैं। हए सिद्ध के स्वरूप का जो संवेदनात्मक ध्यान अथवा रहस् शब्द का अर्थ एकान्त या गुप्त होता है, किया जाता है, उसे अरूप (रूपातीत) धर्म ध्यान सर्वज्ञ हो जाने से जिनके लिए कोई भी पदार्थ रहस कहते हैं। (गुप्त) नहीं रहा है, अर्थात् जिनके सर्वगत ज्ञान प्ररूपी-१. न विद्यते रूपमेषामित्यरूपाणि । रूपसे कुछ भी बचा नहीं है, वे अरहस (अरहंत जिन। प्रतिषेधे तत्सहचारिणां रसादीनामपि प्रतिषेधः । तेन या केवली) कहलाते हैं।
अरूपाण्यमूर्तानीत्यर्थः । (स. सि. ५-४)। २. गुणाअरहस्कर्म-रहः अन्तरम्, अरहः अनन्तरम्, अरहः विभागपडिच्छेदेहि समाणा जे णिद्ध-लुक्खगुणजुत्तपोकर्म अरहस्कर्म । (धव. पु. १३, पृ. ३५०)। गला ते रूविणो णाम, विसरिसा पोग्गला अरूविणो रहस शब्द का अर्थ अन्तर और अरहस शब्द का णाम । (धव. पु. १४, पृ. ३१-३२)। ३. शब्द
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