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अल्पतरसंक्रम]
१३५, जैन - लक्षणावली
[अवक्तव्य उदय
विरति और श्रविरति रूप से परिणत - देशव्रतों का पालन करने वाले श्रावक व श्राविकार्य श्रल्पसावद्यकर्मार्य कहलाते हैं ।
अल्पावग्रह
विहत्तीश्रो एसो अप्पदरविहत्तिश्रो । बहुदराम्रो विह- १ परस्पर एक-दूसरे को अपेक्षा होनाधिकता के तीनो अनन्तरव्यतिक्रान्ते समये बहुस्थितिविकल्पेषु बोध को अल्पबहुत्व कहते हैं । व्यवस्थितेषु, ग्रोसक्काविदे - वर्तमानसमये स्थिति- अल्पसावद्यकर्मार्य - अल्पसावद्यकर्मार्याः श्रावकाः काण्डघातेन ग्रधःस्थितिगलनेन वा अपकर्षितेषु, एषः श्राविकाश्च विरत्यविरतिपरिणतत्वात् । (त. बा. अल्पतरविभक्तिकः । ( जयध. पु. ४, पृ. २) । ३, ३६, २) । व्यवहित प्रतीत समय में बहुत स्थितिविकल्पों के रहने पर फिर वर्तमान समय में स्थितिकाण्डकघात के द्वारा प्रथवा श्रधः स्थितिगलन के द्वारा उनका प्रपकर्षण होने पर वह अल्पतरविभक्तिक कहलाता है । अल्पतरसंक्रम- १. श्रोसक्का विदे बहुदरादो एहि पदराणि संकामेदित्ति एस अप्पदरो। एत्थ प्रोस काविद सद्दो प्रणंतरविदिक्कंतसमयवाचनोति घेत्तव । अथवा बहुदरादो पुव्विल्लसमयसंकमादो एहिमोसक्का विदे इदानीमपकर्षिते न्यूनीकृते अल्पतराणि स्पर्द्धकानि संक्रमयतोऽल्पतरसंक्रम इति सूत्रा - सम्बन्धः । ( जयध. ६, पृ. ६५-६६ ) । २. जे for अणुभाग फट्या संकामिज्जति ते जइ अणंतरविदिक्कते समए संकामिदफदए हितो बहुआ होंति तो एसो भुजगार संकमो । ग्रह जइ तत्तो थोवा होति तो एसो प्रप्पदरसंकमो । (धव. पु. १६, पृ. ३६८) ।
वर्तमान समय में जो अनुभाग के स्पर्धक संक्रमण को प्राप्त हो रहे हैं, वे यदि अनन्तर प्रतीत समय में संक्रामित स्पर्धकों की अपेक्षा श्रल्प होते हैं तो यह श्रल्पतरसंक्रम कहलाता है । अल्पबहुत्व -- १. अल्पबहुत्वम् अन्योन्यापेक्षया विशेषप्रतिपत्तिः । ( स. सि. १-८ ) । २. संख्याताद्यन्यतमनिश्चयेऽपि श्रन्योन्यविशेषप्रतिपत्त्यर्थम् श्रल्पबहुत्ववचनम् । संख्यातादिष्वन्यतमेन परिमाणेन निश्चितानामन्योन्यविशेषप्रतिपत्त्यर्थ मल्पबहुत्ववचनं क्रियते – इमे एभ्योऽल्पा इमे बहव इति । (त. वा. १, ८, १० ) । ३. एतेऽल्पे बहवश्चैतेऽमीभ्यो
तिविविक्तये । कथ्यतेऽल्पबहुत्वं तत्संख्यातो भिन्नसंख्यया । (त. इलो. १, ८, ५७ ) । ४. संख्याताद्यन्यतमनिश्चयेऽपि परस्परं विशेषप्रतिपत्तिनिमित्तमल्पबहुत्वम् । ( न्यायकु. ७-७६, पृ. ८०३ ; त. सुखबो. १ - ८ ) । ५. अल्पबहुत्वं गत्यादिरूप - मार्गणास्थानादिषु जीवानां परस्परं स्तोक-भूयस्त्वम् । ( षडशीति मलय. वृ. २, पृ. १२२-२३) ।
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अल्पश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमपरिणाम आत्मा ततः शब्दादीनामन्यतममल्पं शब्दमवगृह्णाति । (त. वा. १, १६, १६) । श्रोत्रेन्द्रियावरण के प्रल्प क्षयोपशम से परिणत श्रात्मा जो तत वितत श्रादि शब्दों में किसी एक अल्प शब्द का अवग्रह करता है, यह श्रोत्रज अल्पअवग्रह कहलाता है ।
अल्पाहाराव मौदर्य - तत्राहारः पुंसो द्वात्रिंशत्क - वलप्रमाणः । कवलाष्टकाभ्यवहारोऽल्पाहारावमौदर्यम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ९ - १९ ) । पुरुष के ३२ ग्रास प्रमाण आहार में से प्राठ ग्रास मात्र आहार के ग्रहण करने को अल्पाहार-श्रवमौदर्य तप कहते हैं ।
अल्पाहारौनोदर्य - देखो अल्पाहारावमौदर्य । कवलाष्टकाभ्यवहारोऽल्पाहारोनोदर्यम् । (योगशा. स्वो विव. ४ - ८8 ) ।
आठ ग्रास आहार के ग्रहण करने को अल्पाहारौनीदर्य तप कहते हैं ।
प्रल्लीवरणबन्ध - देखो आलेपनबन्ध । १. जो सो अल्लीवणबंधो णाम तस्स इमो णिद्द सो-से कडयाणं वा कुड्डाणं वा गोबरपीडाणं वा पागाराणं वा साडियाणं वा जे चामण्णे एवमादिया अण्णदव्वाणमण्णदहि अल्लीविदाणं बंधो होदि सो सव्वो अल्लीवणबंधो णाम । ( षट्खं. ५, ६, ४२ – पु. १४, पृ. ३६ ) । ३. लेवणविसेसेण जडिदाणं दव्वाणं जो बंधो सो अल्लीवणबंधो । ( धव. पु. १४, पृ. ३७) ।
कटक, भित्ति, गोबरपीढ, कोट, शाटिका ( साड़ी आदि वस्त्र ) तथा अन्य भी इसी प्रकार के पदार्थों का जो इतर पदार्थों से सम्बन्ध - एकरूपता - होती है, उसका नाम अल्लीवण या श्रालापनबन्ध है । अवक्तव्य उदय-- अनंतरादीदसमए उदएण विणा
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