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पर्याय ]
दर्शन - श्रार्य कहलाते है ।
. श्रर्थपर्याय - १. अगुरुलघुकगुणषड्वृद्धि-हानिरूपेण प्रतिक्षणं प्रवर्तमाना अर्थपर्याया: । ( प्रव. सा. जय. वृ. १ - ८० ) ; प्रतिसमयपरिणतिरूपा श्रर्थ पर्याया भण्यन्ते । ( प्रव. सा. जय. वृ. २-३७) । २. सूक्ष्मोsarग्गोचरो वेद्यः केवलज्ञानिनां स्वयम् । प्रतिक्षणं विनाशी स्यात्पर्यायो ह्यर्थसंज्ञकः । ( भावसं वाम. ३७६) । ३. अर्थपर्यायो भूतत्व- भविष्यत्वसंस्पर्शरहितशुद्धवर्तमानकालावच्छिन्नं वस्तुस्वरूपम् । ( न्या. दी. पू. १२० ) । ४. प्रतिव्यक्त्यनुगतं सत्त्वं चार्थपर्याय: । (स्या रह. पत्र १० ) ।
अर्थविज्ञान - श्रर्थविज्ञानमूहापोह्योगान्मोह- सन्देहविपर्यासव्युदासेन ज्ञानम् । (योगशा. स्वो विव. १, ५१; श्री. गु. वि. पू. ३७) । ऊहापोहपूर्वक वस्तुगत संशय, विपर्यास और मोह ( अनध्यवसाय) को दूर करके यथार्थ जानने को श्रर्थविज्ञान कहते हैं ।
श्रर्थविनय - १. श्रब्भासवित्ति छंदाणुवत्तणं देसकालदाणं च । श्रब्भुट्ठाणं अंजलि ग्रासणदाणं च प्रत्थकए ।। (दशवं. नि. ६-३१२; उत्तरा. नि. शा. वृ. १ - २६, पृ. १६ उद्धृत) । २. अर्थ प्राप्तिहेतोरीश्वरा
१ अगुरुलघु गुण के निमित्त से छह प्रकारकी वृद्धि एवं हानिरूप से जो प्रतिक्षण पर्यायें उत्पन्न होती द्यनुवर्तनमर्थं विनयः । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १–२६,
हैं, उन्हें पर्याय कहते हैं ।
१२६, जैन - लक्षणावली
पर्याय नैगम - प्रर्थपर्याययोस्तावद् गुण-मुख्यस्वभावतः । क्वचिद्वस्तुन्यभिप्रायः प्रतिपत्तुः प्रजायते ॥ यथा प्रतिक्षणध्वंसि सुखसंविच्छरीरिणः । (त. इलो. १, ३३, २८-२६, पृ. २७० ) । दो पर्यायों में एक की गौणता और दूसरे की मुख्यता करके विवक्षित वस्तु के विषय में जो ज्ञाता का अभिप्राय होता उसे अर्थपर्याय नैगम कहते हैं। जैसे—शरीरधारी श्रात्मा का सुख-संवेदन प्रतिक्षण विनाश को प्राप्त हो रहा है। यहां पर उत्पाद - व्यय - ध्रौव्ययुक्त सत्तारूप अर्थपर्याय तो विशेषण होने से गौण है और संवेदनरूप अर्थ पर्याय विशेष्य होने के कारण मुख्य है । अर्थ पर्यायाशुद्धद्रव्यनैगम-क्षणमेकं सुखी जीवो विषयीति विनिश्चयः । विनिर्दिष्टोऽथंपर्यायाशुद्धद्रव्यगनैगमः । (त. इलो. १, ३३, ४२ पृ. २७० ) ।
पर्याय को गौणरूपसे और अशुद्ध द्रव्य को प्रधान रूप से विषय करने वाले नय को अर्थ पर्यायाशुद्धद्रव्यनैगमनय कहते है । जैसे—विषयी जीव एक क्षण मात्र सुखी है। यहां पर सुखरूप प्रर्थपर्याय तो गौण है और संसारी जीवरूप श्रशुद्ध द्रव्य मुख्य है ।
अर्थ रुचि - देखो अर्थ ( सम्यक्त्व ) । वचनविस्तारविरहितार्थग्रहणजनितप्रसादा अर्थरुचयः । (त. वा. ३, ३६, २) ।
वचनविस्तार से रहित अर्थ के ग्रहण से ही जिनके प्रसन्नता — तत्त्वरुचि - प्रादुर्भूत हुई है वे श्रर्थरुचि
ल. १७
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[अर्थशुद्धि
पृ. १७) ।
१ राजा श्रादि के समीप में स्थित रहना, उनके अभिप्राय के अनुसार कार्य करना, देश-काल के अनुसार प्रस्ताव उपस्थित करना तथा उठकर खड़े हो जाना व उन्हें प्रासन देना इत्यादि जो अर्थ की प्राप्ति
लिये विनय की जाती है वह सब अर्थविनय कहलाता है ।
अर्थ-व्यञ्जन पर्यायार्थनैगम - १. श्रर्थ-व्यञ्जनपर्यायौ गोचरीकुरुते परः । धार्मिके सुखजीवित्वमित्येवमनुरोधत: । (त. श्लो. १, ३३, ३५ पृ. २७० ) । २. तत्र सूक्ष्मः क्षणक्षयोऽवाग्गोचरोऽर्थपर्यायार्थो वस्तुनो धर्मः । स्थूलः कालान्तरस्थायी वाग्गोचरो व्यञ्जनपर्यायोऽर्थधर्मः । एतद्धर्मद्वयास्तिस्वावलम्बी अर्थव्यञ्जनपर्यायार्थनैगमो भवति । (त. सुखबो. १-३३) ।
१ जो श्रर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय इन दोनों को एक साथ विषय करे, उसे अर्थ- व्यञ्जनपर्यायार्थ नैगमनय कहते हैं । जैसे- धर्मात्मा सुखजीवी होता है ।
प्रर्थशुद्धि - १. व्यञ्जनशब्दस्य सान्निध्यादर्थशब्दः शब्दाभिधेये वर्तते । तेन सूत्रार्थोऽर्थ इति गृह्यते । तस्य का शुद्धि: ? विपरीतरूपेण सूत्रार्थनिरूपणाभ्याम् अर्थाधारत्वान्निरूपणाया अवैपरीत्यस्य अर्थशुद्धिरित्युच्यते । (भ. प्रा. विजयो. टी. ११३) । २. अर्थशुद्धिः सम्यक्सूत्रार्थनिरूपणा । ( भ. प्रा. मूला. टी. ११३ ) ।
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