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अभिग्रहमतिक]
करने वाली भाषा को अभिगृहीता भाषा कहते हैं । अथवा प्रवृत्तिनिमित्तक प्रसिद्ध पदों के कथन को अभिगृहीता भाषा कहते हैं । अभिग्रहमतिक - प्रभिग्रहा द्रव्यादिषु नानारूपा नियमा:, तेषु स्व- परविषये मतिः तद्ग्रहण- ग्राहणपरिणामो यस्यासौ अभिग्रहमतिकः । ( सम्बोधस वृ. गा. १६, पृ. १७) । द्रव्यादिकों के विषय में जो अनेक प्रकार के नियम हैं उन्हें अभिग्रह कहते हैं । उक्त नियमरूप अभिग्रहों में स्व श्रौर पर के विषय में ग्रहण करने कराने रूप जिसकी मति (परिणाम) हुआ करती है, उसे श्रभिग्रहमतिक कहते हैं । श्रभिघातगति ( क्रियाभेद ) — जतुगोलक - कन्दु-दारुपिण्डादीनामभिघातगतिः । (त. वा. ५,२४,२१) । लाख का गोला, गेंद और काष्ठपिण्ड श्रादि की अन्य से ताड़ित होने पर जो गति होती है उसे श्रभिघातगति कहते हैं । अभिजातत्व - १. अभिजातत्वं वक्तुः प्रतिपाद्यस्य वा भूमिकानुसारिता । (समवा. अभय वृ. सू. ३५, पृ. ६) । २. अभिजातत्वं यथाविवक्षितार्थाभिधानशीलता । ( रायप. टी. पू. १६) ।
२ विवक्षित अर्थ के अनुसार कथन की शैली का नाम अभिजातत्व है । यह पैंतीस सत्यवचनातिशयों ठारहवां है।
श्रभिज्ञा ( प्रत्यभिज्ञा ) – 'तदेवेदम्' इति ज्ञानमभिज्ञा । (सिद्धिवि. टी. ४ - १, पू. २२६, पं. ५ ) । 'यह वही हैं' इस प्रकारका जो ज्ञान ( प्रत्यभिज्ञान ) होता है उसे अभिज्ञा कहते हैं । अभिधान-नामनिबन्धन - जो णामसद्दो पत्तो संतो अप्पाणं चेव जाणावेदि तमभिहाणणिबंधणं णाम । (धवला पु. १५, पू. २ ) ।
जो नामशब्द प्रवृत्त होकर केवल अपना ही बोध कराता है, उसे अभिधान- नाम- निबन्धन कहते हैं । यह नामनिबन्धन के तीन भेदों में से दूसरा है । अभिधानमल - अभिधानमलं तद्वाचकः शब्दः । ( धव. पु. १, पृ. ३३ ) ।
मल-वाचक शब्द को अभिधानमल कहते हैं । अभिधायकविधि - तद् - ( अभिधेयविधि - ) ज्ञापकश्चाभिधायकविधिः । (प्रष्टस. यशो वृ. ३, ५० ) ।
ल. १५
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११३, जैन- लक्षणावली
[ अभिनिबोध
विवक्षित अर्थ ( श्रभिधेय ) का ज्ञापन कराने वाली विधि को श्रभिधायक विधि कहते हैं । अभिधेयविधि -यस्य बुद्धिः प्रवृत्तिजननीमिच्छा ते सोऽभिधेयविधिः । (प्रष्टस. यशो. वृ. ३, ५० ) । जिसकी बुद्धि प्रवृत्ति की जनक इच्छा को उत्पन्न करे उसे अभिधेयविधि कहते हैं । अभिध्या-सदा सत्त्वेष्वभिद्रोहानुध्यानम् अभिध्या । यथा -- श्रस्मिन् मृते सुखं वसामः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-१) ।
प्राणियों के विषय में सदा अभिद्रोह के चिन्तवन करने को प्रभिध्या कहते हैं। जैसे- इसके मर जाने पर हम सुख से रह सकते हैं। अभिनय - अभिनयः चतुभिराङ्गिक- वाचिक-सात्त्विकाहार्यभेदैः समुदितै रसमुदितैर्वाऽभिनेतव्यवस्तुभावप्रकटनम् । (जम्बूद्वी. वृ. ५-१२१, पृ. ४१४)। कायिक, वाचनिक, सात्त्विक और श्राहार्य इन चार भेदों के द्वारा, चाहे वे समुदाय रूप में हों या पृथक् पृथक्, अभिनेतव्य ( जिस वृत्तान्त को नकल करके प्रगट किया जाय ) वस्तु के भाव को प्रगट करना, इसका नाम अभिनय है ।
अभिनवानुज्ञा - अभिनवानुज्ञा नाम यदा किलान्यो देवेन्द्रः समुत्पद्यते तदा तत्कालवर्तिभिः साधुभिर्यदसावभिनवोत्पन्नतयाऽवग्रहमनुज्ञाप्यते सा तेषां साधूनामभिनवानुज्ञा । ( बृहत्क. वृ. ६७० ) जब कोई नया देवेन्द्र उत्पन्न होता है तब वह तत्कालवर्ती साधुनों के द्वारा अवग्रह ( उपाश्रय ) के लिये श्रनुज्ञापित किया जाता है, यह उन साधुनों की अनुज्ञा अभिनवानुज्ञा कही जाती है । अभिनिबोध - १. अभिनिबोधनमभिनिबोधः । ( स. सि. १ - १३) । २. ग्राभिमुख्येन नियतं बोधनमभिनिबोध: । (त. वा. १, १३, ५) । ३. प्रत्थाभिमुहो णियतो बोध: ( अभिनिबोध: ), स एव स्वाधिकप्रत्ययोपादानादभिनिबोधकम् । ( नन्दी. चू. पू.
१० ) । ४. प्रत्थाभिमुहो निप्रो बोहो जो सो मोभिनिबोहो । (विशेषा. भा. ८०, पृ. ३७ ) । ५. ग्रर्थाऽभिमुखो नियतो बोधोऽभिनिबोध: । (श्राव. हरि. वृ. १, पृ. ७) । ६. अहिमुह - णियमिदट्ठे सु जो बोधो सो हिणिबोधो । ( धव. पु. ६, पू. १५ - १६ ) । ७. यत्तदावरणक्षयोपशमादिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बाच्च
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