Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 229
________________ अमनोज्ञ] १२०, जैन-लक्षणावली [अमूढदृष्टि द्विप्रकारं मनो येषां तेऽमनस्काः । (त. वृत्ति श्रुत. राग-द्वेष के वशीभूत होता हुआ पाप कर्म का संचय २-११)। करता है। २ द्रव्य-भाव स्वरूप मनसे रहित जीवों को प्रम- अमात्य (अमच्च)-१. सजणवयं पुरवरं चितंतो नस्क कहते हैं। अत्थ (च्छ) इ नरवति च । वबहार-नीतिकुसलो अमनोज्ञ--१. अमनोज्ञं अप्रिय विष-कण्टक-शत्रु- अमच्च एयारिसो xxx ॥ (व्यव. भा. ३, शस्त्रादि, तद् बाधाकारणत्वादमनोज्ञम् इत्युच्यते । पृ. १२६) । २. अमात्यः देशाधिकारीत्यर्थः । (स. सि. ९-३०) । २. अप्रियममनोज्ञं वाधाकारण- (त्रि. सा. टी. ६८३)। ३. यो व्यवहारकुशलो त्वात् । यदप्रियं वस्तु विष कण्टक-शत्रु-शस्त्रादि नीतिकुशलश्च सन् सजनपदं पुरवरं नरपति च तद् बाधाकारणत्वादमनोज्ञमित्युच्यते । (त. वा. ६, चिन्तयन्नवतिष्ठते स एतादशो भवति अमात्यः । ३०, १)। ३. अप्रियममनोज्ञम्, बाधाकारणत्वात् । अथवा यो राज्ञोऽपि शिक्षा प्रयच्छति। (व्यव. भा. (त. श्लो . ९-३०)। मलय. व. ३, पृ. १२६); अमात्यो राजकार्य१ विष, कण्टक और शत्र प्रादि जो बाधा के कारण चिन्ताकृत् । (व्यव. भा. मलय. व. २-३३) । ४. हैं, उन अप्रिय पदार्थों को अमनोज्ञ कहते हैं। अमात्याः सहजन्मानो मंत्रिणः । (कल्पसूत्र वृ. अमनोज्ञ-सम्प्रयोग-सम्प्रयुक्त प्रार्तध्यान (अम- ३-६२)। गुण्ण-संपयोग-संपउत्त अट्टज्झारण)-१. अमणुण्णं १ जो व्यवहारचतुर व नीतिकुशल होता हुआ णाम अप्पियं, समंतयो जोगो संपयोगो तेण अप्पि- जनपदों सहित श्रेष्ठ नगर और राजा को भी चिन्ता एण समततो संप उत्तो तस्स विप्पयोगाभिकंखी सति- करता है वह अमात्य कहलाता है। २ देश का समण्णागते यावि भवइ, सतिसमण्णागते णाम जो अधिकारी होता है उसे अमात्य कहा जाता है। चित्तणिरोहो काउं झायइ जहा कहं णाम मम एतेसु अमार्गदर्शन-चौरमार्गप्रयच्छकानां मार्गान्तरकथ. अणिठेसु विसएसु सह संजोगो न होज्जत्ति, तेसु नेन तदज्ञापनम् । (था. गु. वि. पृ. १०; प्रश्नव्या. अणिठेसु विसयादिसु परोस समावण्णो अप्पत्तेसु वृ. पृ. १६३)। इठेसु परमगिद्विमावण्णो रागद्दोसवसगयो नियमा चोरों का मार्ग पूछने वालों को दूसरा मार्ग बताकर उदयकिलिन्न व्व पावकम्मरयं उवचिणाइ त्ति अस्स उससे अनभिज्ञ रखना, इसे प्रमार्गदर्शन कहते हैं। पढमो भेदो मतो। (दशवै. च.प २६.३०)। २. कदा अमित्रक्रिया-१. अमित्रक्रिया द्वेषलक्षणा। (गु. ममाऽनेन ज्वर-शूल-शत्रु-रोगादिना वियोगो भविष्य- गु. ष. वृ. १५, पृ. ४१)। २. अमित्रक्रिया पित्रादिषु तीत्येवं चिन्तनम् आर्तध्यानं प्रथमम् । (मला. ३. स्वल्पेऽप्यपराधे तीव्रतरदण्डकरणम् । (धर्मसं. मान. ५-१९८) । ३. अमनोज्ञानां शब्दादिविषयाणां स्वो. व. ३, २७, पृ. ८२)। तदाधारवस्तूनां च रासभादीनां संप्रयोगे तद्विप्रयोग- २ पिता आदि के द्वारा अल्प भी अपराध के हो चिन्तनमसंप्रयोगे प्रार्थना च प्रथमम् । (धर्मसं. मान. जाने पर तीव्र दण्ड देने को अमित्रक्रिया कहते हैं। स्वो. वृ. ३, २७, पृ. ८०)। ४. अमणुन्नाणं सद्दाइ- अमढहक-अतत्त्वे तत्त्वश्रद्धानं मूढदृष्टिः स्वलक्षविसयवत्थूण दोसमइलेस्सं । धणियं वियोगचितण- णात् । नास्ति सा यस्य जीवस्य विख्यातः सोऽस्त्य मसंपयोगाणुसरणं च ।।६।। (प्राव. ४ अ.-अभि. मूढदक ।। (लाटीसं. ४-१११, पंचाध्या. २-५८९) रा. १. पृ. २३५)। जिस जीव की अतत्त्व में तत्त्वश्रद्धारूप मूढ दृष्टि १ अमनोज्ञ (अनिष्ट) वस्तुओं का संयोग होने पर नहीं रहती है वह अमूढदृक् कहलाता है । के वियोग का अभिलाषी होकर जो यह विचार अमढदृष्टि-१. जो हवदि असंमूढो चेदा सम्वेसू किया जाता है कि इन अनिष्ट विषयों के साथ मेरा कम्मभावेसु। सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेसंयोग कैसे नष्ट होगा, यह अमनोजसम्प्रयोग नाम- दम्वो ॥ (समयप्रा. २५०) । २. कापथे पथि का प्रथम प्रार्तध्यान है। इसके प्राश्रय से अनिष्ट दुःखानां कापथस्थेऽप्यसम्मतिः । असंपृक्तिरनुत्कीर्तिविषयों में द्वेषभाव को प्राप्त होकर और अप्राप्त रमूढा दृष्टिरुच्यते ॥ (रत्नक. १४) । ३. बहुविधेषु इष्ट पदार्थों में लोलुपता को प्राप्त होकर जीव दुयदर्शनवर्त्मसु तत्त्ववदाभासमानेषु युक्त्यभावं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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