________________
प्रतिपात ]
१०४, जैन- लक्षणावली
और भित्ति
१ श्राकाश के समान शैल, शिला, वृक्ष आदि पदार्थों के भीतर से बिना किसी व्याघात के निकल जाने को प्रतिघात ऋद्धि कहते हैं । श्रप्रतिघातित्व - अद्रिमध्येऽपि निःसङ्गगमनम् श्र प्रतिघातित्वम् । (योगशा. स्वो विव. १-८ ) । देखो प्रतिघात ऋद्धि ।
प्रतिपात - १. प्रतिपतनं प्रतिपातः, न प्रतिपात: अप्रतिपातः । उपशान्तकषायस्य चारित्रमोहोद्रेकात् प्रच्युतसंयमशिखरस्य प्रतिपातो भवति, क्षीणकषायस्य प्रतिपातकारणाभावादप्रतिपातः । ( स. सि. १-२४)। २. × × × निजरूपतः । प्रच्युत्य सम्भवश्चास्याप्रतिपातः प्रतीयते || / त. इलो. १, २४, २) ।
१ चारित्ररूप पर्वत के शिखर से नहीं गिरने को प्रतिपात कहते हैं । प्रतिपात उपशान्तकषाय जीव का तो होता है, किन्तु क्षीणकषाय का नहीं होता । प्रतिपाति (तो) - देखो ग्रप्रतिपात । १. प्रतिपातीति विनाशी, विद्युत्प्रकाशवत् । तद्विपरीतो प्रतिपाती । (त. वा. १, २२, ४, पृ. ८२ ) । २. जमोहिणाणमुपणं संतं केवलणाणे समुप्पण्णे चेव विणसदि, अण्णा ण विणस्सदि; तमप्पडिवादी णाम । ( धव. पु. १३, पृ. २६५ ) । ३. न प्रतिपाति अप्रतिपाति, यत् किलाऽलोकस्य प्रदेशमेकमपि पश्यति, तदप्रतिपातीति भावः । ( कर्मवि. दे. स्वो वृ. गा. ८) । ४. न प्रतिपाती प्रतिपाती । यत्केवलज्ञानाद्वा मरणादारतो वा न भ्रंशमुपयातीत्यर्थः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३३-३१७, पृ. ५३९ ) । यत्प्रदेशमलोकस्य दृष्टुमेकमपि क्षमम् । तत्स्यादप्रतिपात्येव केवलं तदनन्तरम् । ( लोकप्र. ३-८४७ )। ६. आ केवलप्राप्ते रामरणाद्वाऽवतिष्ठमानमप्रतिपाति । (जैनत. पू. ११८ ) ।
१ जो अवधिज्ञान बिजली के प्रकाश के समान विनश्वर नहीं है, किन्तु केवलज्ञान की प्राप्ति तक स्थिर रहने वाला है, उसे अप्रतिपाती अवधि कहते हैं । ३ जो प्रलोक के एक प्रदेश को भी देखता है उसे प्रतिपाती श्रवधिज्ञान कहा जाता है । अप्रतिबद्ध-- १. अन्तरालग्राम-नगरादिसन्निवेशस्थ - यति-गृहिसत्कार-सन्मान प्राघूर्णकभक्तादौ सर्वत्राप्रतिवृद्धत्वात् 'ग्रपविद्धो य सव्वत्थ' इत्युच्यते । (भ. प्रा. विजयो. टी. ४०३ ) । २. अप्पडिबद्धो प्रासक्ति
Jain Education International
[प्रप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण
रहित: । ( भ. प्रा. मूला. टी. ४०३ ) ।
जो ग्राम, नगर व अरण्यादि में रहने वाले मुनि या गुहस्थ के द्वारा किये जाने वाले श्रादर-सत्कार से मोहित न होकर सर्वत्र अनासक्त रहता है; ऐसे निर्मोही साधु को प्रतिबद्ध कहते हैं । प्रतिबुद्ध - १. कम्मे णोकम्मम्हि य ग्रहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी प्रप्पfsबुद्ध हवदि ताव || ( समय प्रा. २२ ) । २. अप्रतिबुद्ध: स्वसंवित्तिशून्य बहिरात्मा । समयप्रा. जय. वृ. २२) ।
कर्म - नोकर्म को आत्मा और श्रात्मा को कर्म-नोकर्म समझने वाला जीव अप्रतिबुद्ध ( वहिरात्मा ) कहलाता है।
प्रतिलेख - प्रतिलेखश्चक्षुषा द्रव्यस्थानस्याप्रतिलेखन मदर्शनम् । ५–२२०) ।
विवक्षित द्रव्य या उसके स्थान को आंख से न देखने और पिच्छी से प्रमाजित न करने को श्रप्रतिलेख कहते हैं।
प्रतिश्रावी - प्रतिश्रावी निश्छिद्रशैलभाजनवत् परकथितात्मगुह्यजलाप्रति श्रवणशीलः । ( सम्बोधस. वृ. श्लो. १९) ।
निश्छिद्र पत्थर का वर्तन जिस प्रकार जल को धारण करता है— उसे नहीं निकलने देता- उसी प्रकार जो दूसरे की गुप्त बात को स्थिरता से धारण करता है - उसे प्रगट नहीं होने देता उसे श्रप्रतिश्रावी कहते हैं । यह श्राचार्य के ३६ गुणों में से एक ( ) हैं ।
प्रत्यवेक्षण दोष – प्रलोकितं प्रमृष्टं च न पुनः शुद्धमशुद्धं चेति निरूपितमित्यादान - निक्षेपकरणाच्चतुर्थोऽप्रत्यवेक्षणाख्यो दोषः । (भ. श्री. मूला. टी. ११६८) ।
वस्तु को देखकर और पिच्छी से स्वच्छ करके भी उसकी शुद्धि शुद्धि को न देखते हुए उसे ग्रहण करना या रखना, यह श्रादान निक्षेपणसमिति का प्रत्यवेक्षण नामका चौथा दोष है । अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण १. प्रभार्जनोत्तरकाले जीवाः सन्ति न सन्तीति वाऽप्रत्यवेक्षितं यन्निक्षिप्यते तदप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरणम् । (भ. आ. विजयो. ८१४) । २. प्रमार्जनोत्तरकालं जीवाः
For Private & Personal Use Only
पिच्छिकाया वा
( मूला. वृ.
www.jainelibrary.org