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अबुद्धि] ११०, जैन-लक्षणावली
[अभद्र अबुद्धि - आत्मस्थदुःखबीजापायोपायचिन्ताशून्य- वेदतीव्रोदयात् कर्म मैथुनं मिथुनस्य यत् । तदब्रह्मात्वादनिवार्यपरदुःखशोचनानुचरणाच्चाबुद्धिः । (भ. पदामेकं पदं सद् गुणलोपनम् ।। (प्रा. सा. ५-४७)। प्रा. मूला. टी. १७५४) ।
११. स्त्री-पुंसव्यतिकरलक्षणमब्रह्म । (शास्त्रवा. टी. जिसे अपने दु:ख के दूर करने की चिन्ता न हो, पर १-४)। दूसरे के दुःख में दुःखी होकर जो उसे दूर करने २ अहिंसादि गुणों के बढ़ाने वाले ब्रह्म के प्रभाव का प्रयत्न करता है वह अबुद्धि है----अज्ञानतावश को-उसके न पालन करने को-प्रब्रह्म कहते हैं । ऐसा करता है।
४ स्त्री-पुरुषों की रागपूर्ण चेष्टा (मैथुन क्रिया) को अबुद्धिपूर्वा निर्जरा-नरकादिषु गतिषु कर्मफल- अब्रह्म कहा जाता है।। विपाकजाऽबुद्धिपूर्वा, सा अकुशलानुबन्धा । (स. सि. अब्रह्मचर्या-ततो (ब्रह्मतः अात्मनः) ऽन्यो वामलो६-७; त. वा. ६, ७, ७)।
चनाशरीरगतो रूपादिपर्यायोऽब्रह्म, तत्र चर्या नामानरकादिक गतियों में कर्मों के उदय से फल को देते भिलाषापरिणतिः । (भ. प्रा. विजयो. टी. ८७९)। हुए जो कर्म झड़ते हैं उसे अबुद्धिपूर्व-निर्जरा कहते हैं। ब्रह्म से भिन्न जो स्त्री के शरीरगत लावण्य आदि अबुद्धिपूर्व विपाक-देखो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा। है उसका नाम अब्रह्म है, इस प्रब्रह्म की अभिलाषा १. नरकादिषु कर्मफलविपाकोदयोऽबुद्धिपूर्वकः । (त. करना या उसमें परिणत होना, इसे अब्रह्मचर्या भा. ६-७)। २. बुद्धि : पूर्वा यस्य-कर्म शाटयामि कहते हैं। इत्येवंलक्षणा बुद्धिः प्रथमं यस्य विपाकस्य-स अब्रह्मवर्जन-१. पूव्वोइयगुणजुत्तो विसेसो बुद्धिपूर्वः, न बुद्धिपूर्वोऽबुद्धिपूर्वः । (त. भा. सिद्ध. विजियमोहणिज्जो य । बज्जइ अबंभमेगं तो उ वृत्ति ६-७)।
राई पि थिरचित्तो।। सिंगारकहाविरो इत्थीए २ नरकादि में 'मैं कर्म को दूर करता हूँ' इस समं रहम्मि णो ठाइ। चयइ य अतिप्पसंग तहा प्रकारके विचार से रहित जो कर्मफल का विपा- विहसं च उक्कोसं ।। एवं जा छम्मासा एसोऽहिकोदय होता है उसे अबुद्धिपूर्व विपाक कहा जाता है। गतो इहरहा दिळें । जावज्जीव पि इमं वज्जइ अब्रह्म-१. मैथुनमब्रह्म । (त. सू. ७-१६)। एयम्मि लोगम्मि ।। (पञ्चाशक १०,४६४-६६)। २. अहिंसादयो गुणा यस्मिन् परिपाल्यमाने बृहन्ति २. परस्त्रीस्मरणं यत्र न कुर्यान्न च कारयेत् । वृद्धिमुपयान्ति तद् ब्रह्म । न ब्रह्म अब्रह्म इति । अब्रह्मवर्जनं नाम स्थूलं तुर्यं च तद् व्रतम् ।। (धर्मसं. (स. सि. ७-१६; त. सुखबो. वृत्ति ७-१६; त. श्रा. ६-६३)। वृत्ति श्रुत. ७-१६)। ३. अहिंसादिगुणबृहणाद् १ पूर्व पांच प्रतिमाओं का परिपालन करते हुए ब्रह्म । अहिंसादयो गुणा यस्मिन् परिपाल्य- स्थिरतापूर्वक रात में भी अब्रह्म का सर्वथा त्याग माने बहन्ति वृद्धिमुपयन्ति तद् ब्रह्म । न ब्रह्म कर देना और शृंगारकथा को छोड़कर स्त्री के अब्रह्म। किं तत् ? मैथुनम् । (त. वा. ७, १६, साथ एकान्त में न रहते हुए शरीर के शृंगार को १०)। ४. स्त्री-पुंसयोमिथुनभावो मिथुनकर्म वा त्याग देना; यह अब्रह्मवर्जन नामकी छठी प्रतिमा मैथुनम्, तदब्रह्म । (त. भा. ७-११)। ५. कषा- है। इसका परिपालन छह मास अथवा जीवन पर्यन्त यादिप्रमादपरिणतस्यात्मनः कर्तुः कायादिकरण- भी किया जाता है। २ जिस व्रत में परस्त्री का स्मरण व्यापारात् Xxx मोहोदये सति चेतनाचेतनयोरा- न स्वयं करता है और न दूसरों को कराता है उसे (सिद्ध वृत्ति-चेतनस्रोतसोरा) सेवनमब्रह्म। (त.भा. स्थल अब्रह्मवर्जन (चतुर्थ अणुव्रत) कहते हैं। हरि. व सिद्ध. वृ. ७-१)। ६. अब्रह्मान्यत्तु रत्यर्थं अभद्र-अभद्रं हि संसारदुखम् अनन्तम्, तत्कारणस्त्री-पुंस मिथुनेहितम् । (ह. पु. ५८-१३२)। ७. त्वान्मिथ्यादर्शनमभद्रम् । तद्योगान्मिथ्यादृष्टि र. अहिंसादिगुणवृहणाद् ब्रह्म, तद्विपरीतमब्रह्म । (त. भद्रः। (युक्त्यनु. टी. ६३)। श्लो. ७-१६)। ८. यद्वेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते संसार सम्बन्धी अनन्त दुःख का नाम अभद्र है। तदब्रह्म । (पु. सि. १०७) । ६. मैथुन मदनोद्रेकाद- उस अभद्र का कारण होने से मिथ्यादर्शन को और ब्रह्म परिकीर्तितम् ।। (त. सा. ४-७७)। १०. उस मिथ्यादर्शन के योग से मिथ्यादृष्टि जीव को
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