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अन्वयव्यतिरेकी] ६३, जैन-लक्षणावली
[अपचयभावमन्द द्रव्याथिकः । (प्रालाप.--नयच. पृ. १४५)। वरसोक्खा ॥ (प्रा. पंचसं. १-१०८; धव. पु. यह भी द्रव्य है, यह भी द्रव्य है। इस प्रकार समस्त १, पृ. ३४२ उ.; गो. जी. २७५) । २. अपगतास्वभावों के अन्वय रूप से जो द्रव्य को स्थापित स्त्रयोऽपि वेदसन्तापा येषां तेऽपगतवेदाः, प्रक्षीणान्तकरता है उसे अन्वयद्रव्याथिक कहते हैं।
हा इति यावत् । (धव. पु. १, पृ. ३४२); मोहअन्वयव्यतिरेकी --- पञ्च रूपोपपन्नोऽन्वयव्यति- णीयदव्वकम्मक्खंधो तज्जणिदजीवपरिणामो वा वेदो। रेकी । (न्या. दी. पृ. ६०)।
वेदजणिदजीवपरिणामस्स परिणामेण सह कम्मक्खंजो हेतु पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, अबा- धस्स वा अभावो अवगदवेदो। (धव. पु. ५, पृ. धितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व; इन पाँचों रूपों २२२)। ३. करीषजेन ताणेन पावकेनेष्टकेन च । से युक्त होता है उसे अन्वयव्यतिरेकी हेतु कहते हैं। समतो वेदतोऽपेताः सन्त्यवेदा गतव्यथा. ॥ अपकर्षण (प्रोक्कडुण)-१. पदेसाणं ठिदीणमो- अमित. १-२०२)। वट्टणा प्रोक्कडुणा णाम । (धव. पु. १०, पृ. ५३)। १कारीष, तृण और इष्टिकापाक की अन्नि के २. स्थित्यनुभागयोहानिरपकर्षणम् । (गो. क. जी. समान जो क्रम से स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्र. टी. ४३८) ।
रूप परिणामों के वेदन (उदय) से रहित जीवों को कर्मप्रदेशों की स्थितियों के हीन करने का नाम अप- अपगतवेद या अपगतवेदी कहते हैं। कर्षण है।
अपचयद्रव्यमन्द-अपचयद्रव्यमन्दस्तु यः कृशशअपक्रमषट्क---१. चतसृषु दिक्षूलमधश्चेति रीरतया कमपि प्रयास न कर्तुमीष्टे । (बृहत्क. भवान्तरसंक्रमणषट्केनापक्रमेण युक्तत्वात् षट्काप- वृ. ६६७) । क्रमयुक्तः । (पंचास्तिकाय अमृत. वृत्ति ७२)। जो शरीर के कृश होने से कुछ भी प्रयास (परि२. छक्कापक्कमजुत्तो-अस्य वाक्यस्यार्थः कथ्यते श्रम) न कर सके उसे अपचयद्रव्यमन्द कहते हैं। ---अपगतो विनष्ट: विरुद्धक्रमः प्रांजलत्वं यत्र स अपचयपद-१. अवयवापचयनिबन्धनानि-यथा भवत्यपक्रमो वक्र इति ऊधिोमहादिकचतुष्टय- छिन्नकर्णः छिन्ननासिक इत्यादीनि नामानि । गमन रूपेण षड्विधेनापक्रमेण मरणान्ते युक्तः धव. पु. १, पृ. ७७); छिण्णकरो छिण्णणासो इत्यर्थः । (पंचा. का. जय. वृ. ७२)। ३. पूर्व काणो कंटो इच्चादीणि अवचिदणिबंधणाणि । दक्षिण-पश्चिमोत्तरोधिोगतिभेदेन संसारावस्थायां (धव. पु. ६, पृ. १३७)। २. छिण्णकण्णो छिण्णषट्कापक्रमयुक्तः। (गो. जी. म. प्र. व जी. त.प्र. णासो काणो कुंठो (टो) खंजो बहिरो इच्चाईणि टी. ३५६)।
णामाणि अवचयपदाणि, सरीरावयवविगलत्तमवेमरण के समय विरुद्ध गति का न होना, इसका क्खिय एदेसि णामाणं पउत्तिदंसणादो। (जयध. प्र. नाम अपक्रम है। यह ऊर्ध्व, अधः और पूर्वादि चार; १, पृ. ३३)। इन छह दिशाओं के भेद से छह प्रकारका है। २ छिन्न कर्ण, छिन्ननासा, काना, कुंट (कुबड़ा, वौना इसीसे उसे 'अपक्रमषट्क' के नाम से कहा जाता है। अथवा हाथ से हीन), कुबड़ा, लंगड़ा और बहिरा अपक्व दोष-१.xxx अपक्वं पावकादिभिः । आदि नामपद विशिष्ट शरीरावयव की हीनता के द्रव्यैरत्यक्तपूर्बस्ववर्ण-गन्ध-रसं विदु.॥ (प्राचा. सा. सूचक होने से अपचयपद कहलाते हैं। ८-५२; भावप्रा. टी. १००)। २. अपक्वं यदग्नि- अपचयभावमन्द-अपचयभावमन्दस्तु यो निजसनाऽन्येन वा इन्धनधमादिना प्रकारेण न पक्वम् । हजबुद्धेरभावेनान्यदीयाया बुद्धरनुपजीवनेन हिताहि(बृहत्क. वृ. १०८)।
तप्रवृत्ति-निवृत्ती न कर्तुमीशः स बुद्धेरपचयेन भावतो अग्नि आदि द्रव्य के द्वारा जिसका रूप, रस व गन्ध मन्दत्वादपचयभावमन्दः। अथवा यस्तु परिस्थूरअन्यथा न हुआ हो, उसका सेवन करने पर अपक्व- मतिः स बुद्धेः स्थूलसूत्रतया अन्तनिःसारतालक्षणदोष होता है।
मपचयमधिकृत्यापचयभावमन्दः । (बृहत्क. वृ.६६७) अपगतवेद-१. करिस-तणेद्रावग्गीसरिसपरिणाम- जो अपनी बद्धि की हीनता से अपने हित-अहित में वेदणुम्मुक्का । अवगयवेदा जीवा सगसंभवणंत- प्रवृत्ति और परिहार न कर सके और परकी बुद्धि से
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