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अध्रुवबन्ध] ४२, जैन-लक्षणावली
[अध्वर्य कभी बहुत पदार्थों का तो कभी स्तोक पदार्थ का, समान विलीन हो जाती हैं, ऐसा चिन्तवन करना अथवा कभी बहुत प्रकारके पदार्थ का तो कभी अध्र वानप्रेक्षा है। एक प्रकारके पदार्थ का, इस प्रकार होनाधिकरूप अध्र वावग्रह-१. कदाचिद् बहूनां कदाचिदल्पस्य से जो पदार्थ का अवग्रह होता है उसे अध्र वप्रत्यय कदाचिद् वहुविधस्य कदाचिदेकविधस्य वेति न्यूनाया अध्र वावग्रह कहते हैं।
धिकभावादध्रुवावग्रहः । (स. सि. १-१६) । प्रध्र व बन्ध-१.कालान्तरे व्यवच्छेदभागध्रुवः । २. पौनःपुन्येन संक्लेश-विशद्धिपरिणामकारणापेक्ष(पञ्चसं. मलय. व. ५-२३)। २. यः पुनरायत्यां स्यात्मनो यथानुरूपपरिणामोपात्तश्रोत्रेन्द्रियसान्निध्येकदाचिद् व्यवच्छेदं प्राप्स्यति स भव्यसम्बन्धी बन्धो ऽपि तदावरणस्येषदीषदाविर्भावात् पौन:पुनिकं प्रकृऽध्रुवः । (शतक. मल. हेम. टी. ३६, पृ. ५२)। ष्टावकृष्टश्रोत्रेन्द्रियावरणादिक्षयोपशमपरिणतत्वाच्चाजिस बन्ध की अागामी काल में कभी व्युच्छित्ति ध्रुवमवगृह्णाति XXXI(त. वा. १, १६, १६) । होगी ऐसे भव्य जीवों के कर्मबन्ध को अध्र व बन्ध ३. न सोऽयमित्याद्य ध्रुवावग्न हः। (घव. पु. १, पृ. कहते हैं।
३५७); तब्विवरीय-(अणिच्चत्ताए) गहणमद्धवावअध्र वबन्धिनी-१. निजबन्धहेतुसम्भवेऽपि भज- गहो। (धव. पु. ६, पृ. २१)। ४. विद्युदादेरनिनीयबन्धा अध्रुवबन्धिन्यः । (कर्मप्र. मलय. वृ. पृ. त्यत्वेनान्वितस्याध्रुवो ग्रहः । (प्राचा. सा. ४-२६)। ८)। २. यासां च निजहेतुसद्भावेऽपि नावश्यम्भावी ५. तद्विपरीत-(अयथार्थग्रहण-) लक्षणः पुनरध्रुवावबन्धस्ता अध्रुवबन्धिन्यः । (शतक. दे. स्वो.टी. १)। ग्रहः । (त. सुखबो. वृ. १-१६)। बन्धकारणों का सदभाव होने पर भी जिन प्रकृ- १ कभी बहत पदार्थों का तो कभी स्तोक पदार्थ तियों का कदाचित् बन्ध होता है और कदाचित् का, अथवा कभी बहुत प्रकारके पदार्थ का तो नहीं भी होता है, उन्हें अध्र वबन्धिनी कहते हैं। कभी एक ही प्रकारके पदार्थ का; इस प्रकार हीनाअध्र वसत्कर्म, अध्र वसत्ताक-१. यत कादाचित्क- धिकरूप जो पदार्थ का अवग्रह होता है उसे अध्र वाभावि तदध्रुवसत्कर्म । (पञ्चसं. स्वो. वृ. ३-५५)। वग्रह कहते हैं। २. यत् पुनरवाप्तगुणानामपि कदाचिद् भवति, कदा- अध्र वोदय– १. वोच्छिण्णो वि हु संभवइ जाण चिन्न, तदध्रवसत्कर्म । (पञ्चसं. मलय.व. ३-५५)। अधूवोदया तायो। (पञ्चसं. गा. ३-१५६, प. ३. यास्तु कादाचित्कभाविन्यस्ता अध्रुवसत्ताकाः। ४८); यासां तु व्यवच्छिन्नोऽपि विनाशमुपगतोऽपि (शतक. दे. स्वो. टी. गा. १)। ४. कदाचिद (उदयो) भूयः प्रादुर्भवति तथाविधहेतुसम्बन्धं प्राप्य भवन्ति कदाचिन्न भवन्तीत्येवमनियता सत्ता यासां ता अध्रुवोदयाख्याः । (पञ्चसं. स्वो. वृ. ३-३८)। ता अध्रुवसत्ताकाः । (कर्मप्र. यशो. टीका गा. १)। २. यासां पुनः प्रकृतीनां व्यवच्छिन्नोऽपि विनाशमु२ विवक्षित कर्मप्रकृतियों का जो सत्कर्म उत्तर- पगतोऽपि, ह निश्चितं, तथाविधद्रव्यादिसामग्रीविगणों के प्राप्त होने पर भी कदाचित् होता है और शेषरूपं हेतं सम्प्राप्य भूयोऽप्युदय उपजायते ता अध्रकदाचित् नहीं भी होता है वह अध्र व सत्कर्म कह- वोदया: सातवेदनीयादयः । (पञ्चसं. मलय. वृ. लाता है। ४ जिनकी सत्ता अनियत हो-कभी ३-३८)। ३. XXXX एगसमयादिअंतोमुपाई जावे और कभी न पाई जावे-ऐसी कर्म- हत्त मेत्तकालावदाणस्सेव अद्धवोदयविवक्खादो । प्रकृतियों को प्रध्र वसत्कर्म या अध्र वसत्ताक (संतकम्मपंजिया-धव. पु. १५, पृ. २४)। कहते हैं।
२ उदय-व्यच्छित्ति हो जाने पर भी द्रव्यादि क्षिा-लोगो विलीयदि इमो फेणो व्व सामग्रीविशेष के निमित्त से जिनका उदय पुनः सदेव-माणुस तिरिक्खो। रिद्धीग्रो सव्वानो सिविणय- सम्भव है ऐसी सातावेदनीयादि प्रकृतियों को प्रध्रसंदसणसमारो ।। (भ. पा. १७१६)।
वोदय कहते हैं। यह चतुर्गतिरूप लोक जलफेन या बुबुद के समान अध्वर्यु-षोडशानामुदारात्मा य: प्रभु वनविदेखते-देखते ही विलय को प्राप्त हो जाता है और जाम् । सोऽध्वर्युरिह बोद्धव्यः शिवशर्माध्वरोद्धरः ।। ये सांसारिक ऋद्धियां स्वप्न में देखे हुए राज्यादि के (उपासका. ८८३)
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