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अनुत्पादानुच्छेद] ७०, जैन-लक्षणावलौ
[अनुनादित्व नुत्तरोपपादिकदशं नाम नवममङ्गम् । (गो.जी. जी. स्थितिसत्कर्म यासां ता अनुदयबन्धोत्कृष्टाः । प्र. ३५७)।
(पञ्चसं. स्वो. व. ३-६२)। २. यासां तु विपा२ उपपाद अर्थात् जन्म ही जिनका प्रयोजन है वे कोदयाभावे बन्धादुत्कृष्टस्थितिसत्कर्मावाप्तिस्ता अनुप्रौपपादिक कहे जाते हैं । प्रत्येक तीर्थंकर के दयबन्धोत्कृष्टाः । (पंचसं. मलय. वृ. ३-६२; कर्मसमय में दारुण उपसर्गों को सहन करके विजयादि प्र. यशो. टी. १, पृ. १५)। पांच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले दश दश २ जिन कर्मप्रकृतियों का विपाकोदय के अभाव में महामुनियों के चरित्र का जिस अंग में वर्णन किया बन्ध से उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व पाया जाता है, उन्हें जाता है उसे अनुत्तरौपपादिकदशा या अनुत्तरोप- अनुदयबन्धोत्कृष्ट कहते हैं। पादिकदशांग कहते हैं । जैसे-वर्धमान तीर्थकर के अनदयवती प्रकृति (अणदयवई)-१. चरिमतीर्थ में ऋषिदास प्रादि दस का (मूल में देखिये)। समयम्मि दलियं जासिं अन्नत्थ संकमे ताोxx अनुत्पादानुच्छेद-अनुत्पादः असत्त्वम्, अनुच्छेदो- X॥ (पंचसंग्रह ३-६६)। २. यासां प्रकृतीनां ऽविनाशः । अनुत्पाद एव अनुच्छेदः (अनुत्पादानु दलिकं चरमसमयेऽन्यासु प्रकृतिषु स्तिबुकसंक्रमेण संच्छेदः), असत अभाव इति यावत्, सतः असत्त्ववि- क्रमय्य अन्यप्रकृतिव्यपदेशेनानुभवेत्, न स्वोदयेन, ता:. रोधात् । एसो पज्जवट्ठियणयववहारो। (धव. पु. अनुदयवत्योऽनुदयवतीसंज्ञाः । (पंचसं. मलय. वृत्ति ८, पृ.६-७); अणुप्पादाणुच्छेदो णाम पज्जवट्ठिो ३-६६; कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. १५)। णमो, तेण असंतावत्थाए अभावववएसमिच्छदि, जिन कर्मप्रकृतियों का प्रदेशपिण्ड चरम समय में भावे उवलब्भमाणे अभावत्तविरोहादो। (धव. पु. स्तिबुक संक्रमण के द्वारा अन्य प्रकृतियों में संक्रान्त १२, पु. ४५८)।
होकर अन्य प्रकृतिरूप से ही विपाक को प्राप्त हो, पर्यायार्थिक नय को अनुत्पादानुच्छेद कहा जाता है। स्वोदय से नहीं; उन प्रकृतियों को अनुदयवती अनुपाद का अर्थ असत्त्व और अनुच्छेद का अर्थ है अविनाश । 'अनुत्पाद ही अनुच्छेद' ऐसा कर्मधारय अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट-१. अनुदये संक्रमेण उत्कृष्ट समास करने पर उसका अभिप्राय होता है असत् स्थितिसत्कर्म यासां ता अनुदयसंक्रमोत्कृष्टाः । का प्रभाव । कारण कि कभी सत् का प्रभाव सम्भव (पंचसं. स्वो. व. ३-६२)। २. यासां पुनरनुदये नहीं है। अतः प्रभाव का व्यवहार पर्यायाथिक नय संक्रमत उत्कृष्टस्थितिलाभस्ता अनुदयसंक्रमोत्कृष्टाको अपेक्षा ही सम्भव है।
ख्याः । (पंचसं. मलय. वृ. ३-६२); अनुदये सति अनुत्सेक-१. विज्ञानादिभिरुत्कृष्टस्यापि सतस्त- संक्रमत उत्कृष्टा स्थितिर्यासां ता अनुदयसंक्रमोत्कृत्कृतमदविरहोऽनहङ्कारताऽनुत्सेकः। (स. सि. ६, ष्टाः । (पंचसं. मलय. वृ. ५-१४५) । २६: त. वा. ६, २६, ४; त. श्लो. ६-२६; त. २ जिन कर्मप्रकृतियों का विपाकोदय के अभाव में सुखबो. वृ. ६-२६)। २. उत्सेको गर्वः श्रुत- संक्रमण से उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व पाया जावे, उन्हें जात्यादिजनितः, नोत्सेकोऽनुत्सेको विजितगर्वता। अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट कहते हैं। (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ६-२५); उत्सेकश्चित्त- अनुदीर्णोपशामना-जा सा प्रकरणोवसामणा परिणामो गर्वरूपः, तद्विपर्ययोऽनुत्सेकः । (त. भा. तिस्से दुवे णामधेयाणि-प्रकरणोवसामणा त्ति वि हरि. व सिद्ध. वृ. ६-६)। ३. ज्ञान-तपःप्रभृतिभि- अणुदिण्णोवसामणा त्ति वि । (कसायपा. चूणि पृ. गुणैर्यदुत्कृष्टोऽपि सन् ज्ञान-तपःप्रभृतिभिर्मदमहंकारं ७०७) । यन्न करोति सोऽनुत्सेक इत्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. देखो अकरणोपशामना । ६-२६)।
अनुनादित्व - १. अनुनादित्वं प्रतिरवोपेतत्वम् । १ विशिष्ट ज्ञान और तप आदि से उत्कृष्ट होकर (समवा. अभय. वृ. सू. ३५)। २. अनुनादिता प्रतिभी उनका मद-अहंकार--न करना, इसका नाम रवोपेतता। (रायप. मलय. वृ. पृ. १६) । अनुत्सेक है।
शब्द का प्रतिध्वनि से सहित होना, इसे अनुनादित्व अनुदयबन्धोत्कृष्ट - १. अनुदये बन्धादुत्कृष्टं कहते हैं ।
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