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अनुपस्थान, अनुपस्थापन] ७२, जैन-लक्षणावली
[अनुपालनाशुद्ध हिदो गुरुवदिरित्तासेसजणेसु कयमोणाभिग्गहो खव- अनुपस्थान) और पारंचिक के भेद से दो प्रकारणायंबिलपुरिमड्ढेयवाण-णिब्वियादीहि सोसियरस- का है। उनमें अनुपस्थापन भी दो प्रकारका हैरुहिर-मांसो होदि । (धव. पु. १३, पृ. ६२)। निज-गण-अनुपस्थापन और परगण-उपस्थापन । जो ३. परिहारोऽनुपस्थान-पारञ्चिकभेदेन द्विविधः। साधु प्रमाद से दूसरे मुनि सम्बन्धी ऋषि या छात्र तत्रानुपस्थानं निज-परगणभेदाद् द्विविधम् । प्रमादा- को, अन्य पाखण्डी से सम्बद्ध चेतन-अचेतन द्रव्य दन्यमुनिसम्बन्धिनमृषि छात्रं वा परपाखण्डिप्रति- को, अथवा परस्त्री को चुराता है; मुनियों पर बद्धचेतनाचेतनद्रव्यं वा परस्त्रियं वा स्तेनयतो मुनीन् प्रहार करता है, या इसी प्रकार का अन्य भी विरुद्ध प्रहरतो वा अन्यदप्येवमादि विरुद्धाचरितमाचरतो आचरण करता है; नौ-दश पूर्वो का धारक है, नव-दशपूर्वधरस्य आदित्रिकसंहननस्य जितपरीषहस्य आदि के तीन संहननों में से किसी एक से सहित है, दृढर्मिणो धीरस्य भवभीतस्य निजगणानुपस्थापनं दृढधर्मी है, धीर है, और संसार से भयभीत है। प्रायश्चित्तं भवति । तेन ऋष्याश्रमाद् द्वात्रिंशद्- ऐसे साधु को निजगण-अनुपस्थापन प्रायचित्त दिया दण्डान्तरं विहितविहारेण, बालमुनीनपि वन्दमानेन, जाता है। तदनुसार वह ऋष्याश्रम से ३२ धनुष प्रतिवन्दनाविरहितेन, गुरुणा सहालोचयता, शेष- दूर जाता है, बालमनियों को भी वन्दन करता है, जनेषु कृतमौनव्रतेन, विधृतपराङ्मुखपिच्छेन, जघ- गुरु के पास पालोचना करता है, शेष जन के प्रति न्यतः पञ्च-पञ्चोपवासा उत्कृष्टतः षण्मासोपवासाः मौन रखता है, अपराध को प्रगट करने के लिए कर्तव्याः। उभयमप्याद्वादशवर्षादिति । ददिन- पीछी को विपरीत स्वरूप से (उलटी) धारण रन्तरोक्तान् दोषानाचरतः परगणोपस्थापनं प्राय- करता है, इस प्रकार रहता हुआ वह १२ वर्ष तक श्चित्तं भवतीति । स सापराध: स्वगणाचार्येण पर- कम-से-कम ५-५ और अधिक से अधिक ६-६ मास गणाचार्य प्रति प्रहेतव्यः । सोऽप्याचार्यस्तस्यालोचन- का उपवास करता है। माकर्ण्य प्रायश्चित्तमदत्त्वा प्राचार्यान्तरं प्रस्थापयति उपयुक्त अपराध को ही यदि कोई मुनि अभिमान सप्तमं यावत् । पश्चिमश्च प्रथमालोचनाचार्य प्रति के वश करता है तो उसे परगण-उपस्थापन प्रायप्रस्थापयति । स एव पूर्वः पूर्वोक्तप्रायश्चित्तेनैवमा- श्चित्त दिया जाता है। तदनुसार उसे अपने संघ का चारयति । (चा. सा. पृ. ६३-६४; अन. ध. स्वो. प्राचार्य अन्य संघ के प्राचार्य के पास भेजता है। टी. ७-५६)। ४. परिहारोऽनुपस्थापन-पारञ्चिक- वह उसके अपराध की आलोचना को सुनकर बिना भेदभाक् । निजान्यगणभेदं तत्राद्यं तत्राद्यभुत्तमम् ॥ प्रायश्चित्त दिये ही अन्य प्राचार्य के पास भेजता है, द्वादशाब्देषु षण्मास-पण्मासानशनं मतम् । जघन्यं इस प्रकार से उसे सातवें प्राचार्य के पास तक भेजा पञ्च-पञ्चोपवासं मध्यं तु मध्यमम् ।। द्वात्रिंशददण्ड- जाता है। वह भी उसकी आलोचना को सुनकर दूरालयस्थेन वसतेर्यतीन् । सर्वान् प्रणमतापेतप्रति- बिना प्रायश्चित्त दिये ही उसी प्रथम प्राचार्य के पास वन्दनसाधुना ।। स्वदोषख्यातये पिच्छं विभ्राणेन भेज देता है। तब वही उसे पूर्वोक्त (निजगणपराङ्मुखम् । सूरीतरैः सहोपात्तमोनेनैतद्विधीयते। अनुपस्थापनोक्त) प्रायश्चित्त को देता है। इस प्रमादेनान्यपाखण्डिगृहस्थ-यतिसंश्रितम् । वस्तु स्तेन- प्रकार अनुपस्थापन प्रायश्चित्त दो प्रकारका है। यतः किञ्चिच्चेतनाचेतनात्मकम् ॥ यतीन् प्रहरतो अनुपालनाशुद्ध-१. प्रादंके उवसग्गे समे य दुब्भिऽन्यस्त्रीहरणादींश्च कुर्वतः । दश-नवपूर्वज्ञस्य श्याद्य. क्खवुत्तिकंतारे। जं पालिदं ण भग्गं एदं अणुपालसंहननस्य तत् ।। करोति यदि दर्पण दोषान् पूर्ववि- णासुद्धं ॥ (मूला. ७-१४५) । २. कंतारे भिक्खे भाषितान् । सोऽयमन्यगणानुपस्थापनेन विशुद्धचति ॥ आयंके वा महइ समुप्पण्णे । जं पालियं ण भग्गं तं प्रायश्चित्तं तदेवात्र किन्तु स्वगणसूरिणा। आलोच्य जाण अणुपालणासुद्धं ॥ (प्राव. भा. ६-२१४) । प्रेषितः सप्तसूरिपार्श्वमनुक्रमात् ॥ आलोच्य तस्तै- आतंक (रोग), उपसर्ग, श्रम, दुर्भिक्षवृत्ति (अकाल रप्राप्तप्रायश्चित्तोऽन्त्यसूरिणा । तमाद्यं प्रापित- के कारण भिक्षा की अप्राप्ति) और वनप्रदेश; इन स्तेन दत्तं चरति पूर्ववत् ॥ (प्राचा.सा. ६,५३-६१)। कारणों के रहते हुए संरक्षित चारित्र के भग्न न ३ परिहारप्रायश्चित्त अनुपस्थापन (अनवस्थाप्य या होने देने का नाम अनुपालनशुद्ध है।
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