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अन्तर्गति] ८८, जैन-लक्षणावली
[अन्तःशल्य रामादयः । (न्या. दी. पृ. ४१)।
(धव. पु. ३, पृ. ६९-७०); मुहुत्तस्संतो अतोमुहुत्तं; काल-विप्रकृष्ट अर्थात् काल की अपेक्षा दूरवर्ती (धव. पु. ४, पृ. ३२४)। २. एगसमएण हीणं पदार्थों को अन्तरितार्थ कहते हैं। (जैसे-राम- (मुहत्तं) भिण्णमुहत्तं तदो तेसं ॥ गो. जी. ५७४)। रावण आदि)।
३. ससमयमावलि अवरं समऊणमुहुत्तयं तु उक्कस्सं । अन्तर्गति-मनुष्यः तिर्यग्योनिवाच्यं यावदुत्पत्ति- मज्झासंख्यवियप्पं वियाण अंतोमुहुत्तमिणं ॥ (गो. स्थानं न प्राप्नोति ता वदन्तर्गतिः । (त. भा. सिद्ध. जी. ५७४तमतः परं क्षेपकम्)। ४. अन्तर्मुहूर्तः वृ. ८-१२)।
समयाधिकामावलिकामादिं कृत्वा समयोनमुहूर्तम् । एक गति को छोड़कर दूसरी गति में जन्म लेने के (त. व. टि., प. १८)। ५. त्रीणि सहस्राणि सप्त पूर्व जो जीव की मध्यवर्ती गति होती है, उसे अन्त- शतानि व्यधिकसप्ततिरुच्छ्वासाः मुहूर्तः कथ्यते गति कहते हैं। जैसे—मनुष्य मरकर जब तक (३७७३)। तस्यान्तः अन्तमुहूर्तः । समयाधिकातिर्यञ्चयोनिरूप अपने उत्पत्तिस्थान को नहीं मावलिकामादिं कृत्वा समयोनमुहूर्त यावत् । (त. प्राप्त कर लेता है, तब तक उसकी गति अन्तर्गति वृत्ति श्रुत. १-८)। कहलाती है।
३ एक समय अधिक प्रावली से लगाकर एक समय अन्तर्धान-१. जं हवदि अद्दिसत्तं अंतद्धाणाभि- कम मुहूर्त तक के काल को अन्तम हूर्त कहते हैं । धाणरिद्धी सा । (ति. प. ४-१०३२)। २. अन्त- अन्ताप्ति-पक्षीकृत एव विषये साधनस्य र्धानमदृश्यो भवेत् । (त. भा. १०-७)। ३. अदृश्य- साध्येन व्याप्तिरन्ताप्तिः । यथानेकान्तात्मक वस्तु रूपशक्तिताऽन्तर्धानम् । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. सत्त्वस्य तथैवोपपत्तेःरिति XxxI (प्र. न. त. २०३) । ४. अन्तर्धानमदृश्यत्वम् । (त. भा. सिद्ध. ३, ३८-३६) । वृ. १०-७, पृ. ३१६; योगशा. स्वो. विव. १-८, पक्ष के भीतर ही साध्य के साथ साधन की व्याप्ति पृ. ३७)। ५. अदृष्टरूपतोऽन्तर्धानमन्तधिः । (त. होने को अन्तर्व्याप्ति कहते हैं । जैसे-वस्तु अनेवृत्ति श्रुत. ३-३६)।
कान्तात्मक है, क्योंकि, अनेकान्तात्मक होने पर ही अदृश्य हो जाने का नाम अन्तर्धान ऋद्धि है। उसकी सत्ता घटित होती है। यहां पक्ष के अन्तर्गत अघि-अरि-विजिगीषोर्मण्डलान्तविहितवृत्तिरुभ- बस्तु को छोड़कर अन्य (अबस्तु) की सत्ता ही यवेतनः पर्वताटवीकृताश्रयश्चान्तधिः । (नीतिवा. सम्भव नहीं हैं, जहां कि उक्त व्याप्ति ग्रहण की जा २६-२६)।
सके। जो शत्रु और उसे जीतने की इच्छा करने वाले के अन्तःकरण-१. गुण-दोषविचार-स्मरणादिव्यापादेशों के मध्य में रहे, दोनों ओर से वेतन ले और रेषु इन्द्रियानपेक्षत्वाच्चक्षुरादिवत् बहिरनुपलब्धेकिसी पर्वत या अटवी में प्राश्रय करके रहे, वह श्च अन्तर्गतं करणं अन्तःकरणम् । (स. सि. १-१४; अन्तधि (चरट) कहलाता है।
त. वृत्ति श्रुत. १-१४)। २. नेन्द्रियमनिन्द्रियम्, नोअन्तर्मल-एकत्र (जीवे) अन्तर्मल: कर्म, अन्यत्र इन्द्रियं च प्रोच्यते । अत्रेषदर्थे प्रतिषेधो द्रष्टव्यो (सुवर्णादौ) अन्तर्मल: कालिमादिः । (प्रा. मी. यथाऽनुदरा कन्येति । तेनेन्द्रियप्रतिषेधेनात्मन: करणवृत्ति. ४)।
मेव मनो गृह्यते, तदन्तःकरणं चोच्यते, तस्य प्रात्मा का अन्तर्मल कर्म कहलाता है, और सुवर्ण बाह्य न्द्रियैर्ग्रहणाभावादन्तर्गतं करणमन्तःकरणमिति आदि के अन्तर्मल कालिमा आदि कहलाते हैं। व्युत्पत्तेः । (त. सुखबो. वृ. १-१४)। अन्तर्मुहूर्त-१. [भिण्णमुहुत्तादो] पुणो वि अव- १ गुण-दोष के विचार और स्मरण प्रादि व्यापारों रेगे एगसमए अवणिदे सेसकालपमाणमंतोमुहत्तं में जो बाह्य इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रखता है तथा होदि। एवं पुणो पुणो समया अवयव्वा जाव उस्सासो जो चक्षु आदि इन्द्रियों के समान बाह्य में दृष्टिणिट्ठिदो त्ति । तो वि सेसकालपमाणमंतोमुहुत्तं चेव गोचर भी नहीं होता है, ऐसे अभ्यन्तर करण (मन) होइ । (धव. पु. ३, पृ. ६७); Xxx सामीप्या- को अन्तःकरण कहते हैं। में वर्तमानान्तःशब्दग्रहणात् मूहर्तस्यान्तः अन्तर्महर्तः। अन्तःशल्य-अन्तः मध्ये मनसीत्यर्थः, शल्यमिव
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