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अनन्तमिश्रिता ]
वियाणाहि ।। जस्स मूलस्स भग्गस्स समो भंगो पदीसई । अनंतजीवे उसे मूले जे याऽवऽन्ने तहाविहे ॥ ( बृहत्क. ९६७-६६ ) ।
जिस दूधयुक्त व उससे रहित भी पत्र (पत्ता) की सिरायें (स्नायु ) व सन्धियां अदृश्य हों वह पत्र श्रनन्तजीव ( अनन्तकाय ) है । इसी प्रकार जिस मूल आदि को तोड़ने पर चक्राकार - समानभंग होता है तथा जिसकी गांठ के भंग होने पर खेत के ऊपर को पपड़ी के समान चूर्ण उड़ता हुना दिखता है वह भी अनन्तजीव है। अभिप्राय यह है कि जिस मूल के भग्न होने पर समान भंग दिखता है उस मूल को अनन्तजीव जानना चाहिए । अनन्तमिश्रिता - १. मूलकादिकमनन्तकार्य तस्यैव सत्कैः परिपाण्डुपत्रैरन्येन वा केनचित् प्रत्येकवनस्पतिना मिश्रमवलोक्य सर्वोऽप्येषोऽनन्तकायिक इति वदतोऽनन्तमिश्रिता । ( प्रज्ञाप मलय वृ. ११, १६५) । २. साणंतमीसिया वि य परित्तपत्ताइजुत्तकंदम्मि । एसो अनंतकाओ त्ति जत्थ सव्वत्थ वि पोगो ।। (भाषार. ६४ ) । ३. अनन्तमिश्रितापि च सा भवति यत्र यस्यां परित्तानि यानि पत्रादीनि तद्युक्ते कन्दे मूलकादी सर्वत्रापि सर्वावच्छेदेनापि एषोऽनन्तकाय इति प्रयोगः ॥ ( भाषार. टी. ६४) । अनन्तकायस्वरूप मूलक (मूली) को उसी के धवल ( प्रत्येक वनस्पति) पत्तों के साथ श्रथवा श्रन्य किसी प्रत्येक वनस्पति के साथ मिश्रित देखकर जो यह कहता है कि 'यह सब अनन्तकायिक है' उसकी इस प्रकारको भाषा अनन्तमिश्रिता कही जाती है । अनन्तरक्षेत्रस्पर्श जो सो अनंत रखेत्त फासो णाम । जं दव्वमणंतरखेत्तेण फुसदि सो सब्बो प्रणतरखेत्तफासो णाम । ( षट्खं. ५, ३, १५-१६, पु. १३, पृ. १७) ।
जो द्रव्य अनन्तर क्षेत्र से स्पर्श करता है उसका नाम अनन्तरक्षेत्रस्पर्श है । अनन्तरबन्ध - कम्मंइयवग्गणाए द्विदपोग्गलखंधा - णं मिच्छत्तादिपच्चएहि कम्मभावेण परिणदपढमसमए • बंधो अणंतरबंधो। (धव. पु. १२. पू. ३७० ) । कार्मण वर्गणा स्वरूप से स्थित पुद्गलस्कन्धों का मिथ्यात्व आदि कारणों के द्वारा कर्मरूप परिणत होने के प्रथम समय में जो बन्ध होता है उसे श्रनन्तरबन्ध कहते हैं ।
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[ अनन्तवियोजक
अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान - यस्मिन् समये सिद्धो जायते, तस्मिन् समये वर्तमानमनन्तरसिद्धकेवलज्ञानम् । (श्राव. मलय. वृ. नि. ७८ ) ।
जिस समय में जीव सिद्ध होता है उस समय में वर्तमान केवलज्ञान को अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान कहते हैं । अनन्तरसिद्धा संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना-न विद्यते श्रन्तरं व्यवधानमर्थात्समयेन येषां ते ऽनन्तरास्ते च ते सिद्धाश्चानन्तरसिद्धाः सिद्धत्वप्रथम - समये वर्तमाना इत्यर्थः, ते च ते ऽसंसारसमापन्नजीवाश्चानन्तरसिद्धा संसारसमापन्न जीवास्तेषां प्रज्ञापनाऽनन्तरसिद्धासंसारसमापन्नजीव प्रज्ञापना । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १- ६) |
सिद्ध होने के प्रथम समय में विद्यमान ऐसे संसार से मुक्त होने वाले जीवों की प्रज्ञापना या प्ररूपणा को श्रनन्तरसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना कहते हैं ।
श्रनन्तराप्ति - विवक्षित भवान्मृत्वोत्पद्य चानन्तरे भवे । यत्सम्यक्त्वाद्यश्नुतेऽङ्गी साऽनन्तराप्तिरुच्यते ॥ ( लोकप्र. ३ - २८२ ) ।
विवक्षित भव से मरकर व अनन्तर भव में उत्पन्न होकर जीव जो सम्यक्त्व आदि को प्राप्त करता है, इसे श्रनन्तराप्ति कहा जाता है । अनन्तरोपनिधा - १. जत्थ णिरंतरं थोवबहुत्तपरिक्खा कीरदे, सा प्रणतरोवणिधा । ( धव. पु. ११, पृ. ३५२); अनंतगुणवड्ढीए प्रसंखेज्जगुणवड्ढीए संखेज्जगुणवड्ढीए संखेज्जभागवड्ढीए असंखेज्जभागवड्ढीए अनंतभागवड्ढीए प्रणतरहेट्टिमद्वाणं पेक्खिण दिट्ठाणाणं जा थोवबहुत्तपरूवणा सातवणिधा । ( धय. पु. १२, पृ. २१४)। २. उपधानमुपधा, धातूनामनेकार्थत्वान्मार्गणमित्यर्थः । ( पञ्चसं. मलय. वृ. बं. क. ९) । जिस प्रकरण में अनन्तगुणवृद्धि श्रादि स्वरूप से अनन्तर अधस्तन स्थान की अपेक्षा स्थित स्थानों के निरन्तर अल्पबहुत्व की परीक्षा की जाती है उसका नाम अनन्तरोपनिधा है । अनन्त वियोजक - १. स एव पुनः अनन्तानुबन्धिक्रोध - मान-माया लोभानां वियोजनपरः (अनन्तवियोजकः) X XXI ( स. सि. ९-४५ ) । २. ग्रनन्तः संसारस्तदनुबन्धिनोऽनन्ताः क्रोधादयस्तान् वियोज - यति क्षपयत्युपशमयति वा अनन्तवियोजक: । (त.
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