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अनात्तागति]
५५, जैन-लक्षणावली [अनादि-नित्य-पर्यायार्थिक नय माहार यदि तीन या सात घरों के अतिरिक्त प्रागे अनादर-१. क्षुदभ्यर्दितत्वादावश्यकेष्वनादरोऽनुके घरों से लाया गया है तो वह अनाचिन्न–ग्रहण त्साहः । (स. सि. ७-३४, चा. सा. पु. १२, सा. करने के अयोग्य होता है।
___ध. स्वो. टी. ५-४०; त. सुखबो. वृत्ति ७-३४) । अनात्तागति-अनात्ता अपरिगृहीता वेश्या, स्व- २. इतिकर्तव्यं प्रत्यसाकल्याद्यथाकथञ्चित्प्रवृत्तिररिणी, प्रोषितभर्तृका, कुलाङ्गना वा अनाथा; तस्यां नुत्साहोऽनादरः इत्युच्यते । (त. वा. ७, ३३, ३; गतिरासेवनम् । इयं चानाभोगादिना अतिक्रमादिना चा. सा. पृ. ११, त. सुखबो. वृ. ७-३३); अावश्यवा अतिचारः । (योगशा. स्वो. विव. ३-६४)। केष्वनादर; ॥४॥ आवश्यकेषु अनादरः अनुत्साहो अनात्ता से अभिप्राय अपरिगहीत वेश्या, कुलटा, भवति । कुतः ?क्षुदभ्यदितत्वात् । (त. वा. ७, ३४, प्रोषितभर्तृका (जिसका पति प्रवास में है), कुलीन ४)। ३. आवश्यकेष्वनादरोऽनुत्साहः । (त. श्लो. स्त्री और अनाथ स्त्री का है। उसका सेवन करना, ७-३४); ४. अनादरः पोषधव्रतप्रतिपत्तिकर्तव्ययह स्वदारसन्तोषव्रती के लिए अतिचार है। तायामिति चतुर्थः । (योगशा. स्वो. विव. ३-११८; अनात्मभूत (लक्षरण)-तद्विपरीतं (यद्वस्तुस्वरूपा- अनादरोऽनुत्साहः प्रतिनियतवेलायां सामायिकस्याननुप्रविष्टं तत्) अनात्मभूतम् । यथा दण्डः पुरुषस्य। करणम्, यथाकथंचिद्वा करणम्, प्रबलप्रमादादिदोषात् (न्यायदी. पृ. ६)।
करणानन्तरमेव पारणं च । (योगशा. स्वो. विव. जो लक्षण बस्तु के स्वरूप में मिला हुआ न हो, ३-११६; सा. ध. स्वो. टी. ५-३३ । ५. अनादरः उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे-पुरुष का पुनः प्रबलप्रमादादिदोषाद् यथाकथंचित्करणं कृत्वा लक्षण दण्ड ।
वा ऽकृतसामायिककार्यस्यैव तत्क्षणमेव पारणमिति । अनात्मभूत (हेतु)-प्रदीपादिरनात्मभूतः (बाह्यो (धर्मवि. मु. वृ. १६४) । ६. अनादरः अनुत्साहः हेतुः) Ixxx तत्र मनोवाक्कायवर्गणालक्षणो प्रतिनियतवेलायां सामायिकस्याकरणम् । (धर्मसं. द्रव्ययोगः चिन्ताद्यालम्बनभूत: अन्तरभिनिविष्टत्वा- मान. स्वो. वृ. २, ५५, ११४) । ७. यदाऽऽलस्यदाभ्यन्तर इति व्यपदिश्यमान प्रात्मनोऽन्यत्वादना- तया मोहात्कारणाद्वा प्रमादतः । अनुत्साहतया त्मभूतः (आभ्यन्तरो हेतु:) इत्यभिधीयते। (त. कुर्यात्तदाऽनादरदूषणम् । (लाटीसं. ६-१९३) । वा. २, ८, १)।
८. चतुर्थोऽतिचार अनादर अनुत्साहः अनुद्यम इति उपयोग (चैतन्य परिणामविशेष) का जो हेतु प्रात्मा यावत् । (त. वृ. श्रुत. ७-३३; क्षुधा-तृषादिभिरसे सम्बन्ध को प्राप्त नहीं है वह बाह्य अनात्मभूत भ्यर्दितस्य आवश्यकेषु अनुत्साहः अनादर उच्यते । हेतु कहलाता है-जैसे प्रदीप प्रादि । उक्त प्रदीप त. वृ. श्रुत.७-३४)।।
आदि चक्षुरादि के समान प्रात्मा से सम्बद्ध न भूख-प्यास, श्रम व पालस्यादि के कारण सामायिक होकर भी प्रात्मा के उपयोग में हेतु होते हैं, अतः और पोषधोपवास प्रादि से सम्बद्ध प्रावश्यक वे बाह्य अनात्मभूत हेतु हैं। चिन्ता आदि का क्रियाओं के करने में उत्साह न रख कर उन्हें यथामालम्बनभत जो मन, वचन व काय वर्गणारूप कथंचित् पूरा करने को अनादर नामका अतिचार द्रव्य योग है वह प्राभ्यन्तर अनात्मभत हेत कहलाता कहते हैं। है। वह चूंकि प्रात्मा से भिन्न है, अतएव जैसे अनादिकरण-१. धम्माधम्मागासा एवं तिविहं अनात्मभूत है वैसे ही वह अन्तरंग में निविष्ट होने भवे अणाईयं । (उत्तरा. नि. ४-१८६)। २. धर्मासे प्राभ्यन्तर भी है। यह भी उस उपयोग में हेतु धर्माकाशानामन्योन्यसंवलनेन सदाऽवस्थानमनादिकरहोता ही है।
णम् । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ४-१८६)। अनात्मशंसन-यदात्मव्यतिरिक्तं तदनात्म, तस्य धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यों के परम्पर व्याघात शंसनं कथनम्, तत्स्वरूपम् अनात्मशंसाष्टकम् । के बिना सदा एक साथ अवस्थान को अनादिकरण (ज्ञानसार वृत्ति १८, पृ. ६६)।
कहते हैं। प्रात्मा के अतिरिक्त अन्य पर पदार्थों के स्वरूप के अनादि-नित्य-पर्यायाथिक नय-अक्कट्टिमा अणिकहने को अनात्मशंसन कहते हैं ।
हणा ससि-सूराईण पज्जया गिण्हइ । जो सो प्रणाइ
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