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नालम्बनयोग ]
दोषः स्यात् । या किम् ? या क्रिया । कया ? तदाशया उपकरणाद्याकांक्षया । ( श्रन. ध. स्वो टीका ८, १०६) ।
१ उपकरणादि प्राप्त करने की इच्छा से गुरु की वन्दनादिक करना, यह अनालब्ध दोष कहलाता है । अनालम्बनयोग- १. तग्गुणपरिणइरूवो सुहुमोऽणालंबो नाम || ( योगबि. १६) । २. सामर्थ्य योगतो या तत्र दिदृक्षेत्यसङ्गसक्त्याढ्या । साऽनालम्बनयोगः प्रोक्तस्तद्दर्शनं यावत् ।। ( षोडशक १५ - ८ ) । २ सामथ्र्ययोग से - क्षपकश्रेणि के द्वितीय श्रपूर्वकरण गुणस्थान में होने वाले प्रतिक्रान्तविषयक शास्त्रदर्शित उपाय से—जो श्रासक्ति रहित निरन्तर प्रवृत्तिरूप असंग शक्ति से परिपूर्ण परतत्त्वविषयक देखने की इच्छा होती है, इसका नाम अनालम्बनयोग है ।
उस वर्षा के न होने
अनावृष्टि - आवृष्टिर्वर्षणम्, तस्य प्रभाव: अनावृष्टि: । ( धव. पु. १३, पृ. ३३६) । वृष्टि का अर्थ वर्षा होता का नाम अनावृष्टि है । अनाशंसा – अनाशंसा सर्वेच्छोपरमः । ( ललितवि. पं० पू. १०२ ) ।
किसी भी प्रकारकी इच्छा के नहीं करने को श्रनाशंसा कहते हैं । अनाश्वान्योऽक्ष-स्तेनेष्वविश्वस्तः शाश्वते पथि निष्ठितः । समस्तसत्त्वविश्वास्यः सोऽनाश्वानिह गीयते । ( उपासका ८६९ ) ।
जो इन्द्रियरूप चोरों के विषय में विश्वास न कर - उनके विषयों की आज्ञा स रहित हो, मोक्षमार्ग पर निष्ठा (आस्था) रखता हो, और समस्त प्राणियों का विश्वासपात्र हो; उसे प्रनाश्वान् कहते हैं ।
श्रनात्र (श्र) व ( श्ररणासव ) - पाणवह मुसावाया प्रदत्त- मेहुण परिग्गहा विरयो । राईभोयणविरो जीवो हवइ प्रणासवो || पंचसमित्रो तिगुत्तो अकसाजिइंदि । अगारवो य णिस्सल्लो जीवो हवइ अणासबो ॥ (उत्तरा ३०, २-३ ) । हिंसादि पांच पापों से रहित, रात्रिभोजन से विरत, पांच समिति व तीन गुप्तियों से युक्त, कषाय से रहित, जितेन्द्रिय तथा गारव व शल्य से विहीन संयतको नास्रव कहते हैं ।
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जैन - लक्षणावली
[ श्रनित्थंलक्षण संस्थान
अनाहार - शरीरप्रायोग्यपुद्गल पिण्डग्रहणमाहारः ॥ XXX तद्विपरीतोऽनाहारः । ( धव. पु. १, पृ. १५३) ।
श्रदारिकादि तीन शरीरों के योग्य पुद्गलों को नहीं ग्रहण करना अनाहार है ।
अनाहारक - १. त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्यातीनां योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः, तदभावादनाहारकः । ( स. सि. २-३०; त. इलो. २-३०; त. वू. श्रुत. २ - ३० । २. विग्गहगदिमावण्णा केवलिणो समुग्घदो जोगी । सिद्धाय प्रणाहारा X XX ॥ ( प्रा. पञ्चसं. १ - १७७; गो. जी. ६६५ ) । ३. अनाहारका प्रजाद्याहाराणामन्यतमेनापि नाहारयन्तीत्यर्थः । ( श्रा. प्र. टी. १६८) । ४. XX X ततोऽनाहारकोऽन्यथा ।। (त.सा. २ -६४ ) । ५. सिद्ध-विग्रहगत्यापन्न-समुद्घातगतसयोगकेवल्ययोगिकेवलिनामेवाना - हारकत्वात् । (जीवाजी मलय वृ. ६- २४७, पु. ४४३) । ६. त्रीण्यौदारिक- वैक्रियिकाहा र काख्यानि शरीराणि षट् चाहार-शरीरेन्द्रियानप्राण-भाषा-मनःसंज्ञिकाः पर्याप्तीर्यथासम्भवमाहरतीत्याहारकः, नाहारकोऽनाहारकः । (त. सुखबो. वृ. २ - ३० ) । १ तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल स्वरूप आहार को न ग्रहण करने वाले जीवों को अनाहारक कहते हैं । २ विग्रहगति को प्राप्त चारों गति के जीव, समुद्घातगत सयोगिकेवली, प्रयोगिकेवली और सिद्ध; ये अनाहारक होते हैं । अनिकाचित-तव्विवरीदं (णिकाचिदविवरीयं ) अणिकाचिदं । ( धव. पु. १६, पृ. ५७६ ) । निकाचित से विपरीत अर्थात् जिन कर्मप्रदेशानों का उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण या उदीरणा की जा सके; उन्हें श्रनिकाचित कहते हैं । अनिच्छाप्रवृत्तदर्शन बालमररण - १. कालेऽकाले वाऽध्यवसानादिना यन्मरणं जिजीविषोस्तद्द्द्वितीयम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. २५) । २. कालेऽकाले वाऽध्यवसानादिना विना जिजीविषोर्मरणमनिच्छाप्रवृत्तम् । ( भा. प्रा. टी. ३२) ।
२ काल या काल में श्रध्यवसान (विचार) आदि के बिना जो जीवित के इच्छुक का मरण होता है उसे अनिच्छाप्रवृत्त दर्शनबालमरण कहते हैं । प्रनित्थंलक्षरण संस्थान - १. ततोऽन्यन्मेधादीनां संस्थानमनेकविधमित्थमिदमिति निरूपणाभावादनि
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