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श्रनवघृतकालानशन ]
स्वभावस्याविवक्षितत्वात् उपसर्जनीभूतम् अप्रधानभूतम् अनपितमित्युच्यते । (त. वृ. श्रुत. ५ - ३२) । १ अविवक्षित या अप्रधान वस्तु को अर्पित कहते हैं । अनवधृतकालानशन अनवघृतकालमादेहोपरमात् । (त. वा. ६, १६, २) । जिस अनशन (उपवास) का कोई काल नियत नहीं है, ऐसे यावज्जीवन चलने वाले अनशन को अनवघृतकालानशन कहा जाता है । अनवस्था दोष – १. अप्रामाणिकानन्तपदार्थ परिकल्पनया विश्रान्त्यभावोऽनवस्था । (प्र. र. माला पू. २७७, दि. १०) । २. अनवस्थालता च स्यान्नभस्तविसर्पिणी | ( चन्द्रप्र च २ - ५८ ) । ३. तथा चोक्तम् — मूलक्षतिकरीमाहुरनवस्था हि दूषणम् । वस्त्वानन्त्येऽप्यशक्तौ च नानवस्था विचार्यते । (प्र. र. माला पृ. १७१) । ४. अनवस्था तु पुनः पुनः पदद्वयावर्तनरूपा प्रसिद्धैव । (श्रभि. रा. १, पृ. ३०२) । १ अप्रामाणिक अनन्त पदार्थों की कल्पना करते हुए जो विश्रान्ति का प्रभाव होता है, इसका नाम अनवस्था दोष है । अनवस्थाप्यता १. हस्ततालादिप्रदानदोषाद् दुष्टतरपरिणामत्वाद् व्रतेषु नावस्थाप्यते इत्यनवस्थाप्यः, तद्भावोऽअनवस्थाप्यता । ( श्राव. हरि. वृ. नि. १४१८ ) । २. अवस्थाप्यत इत्यवस्थाप्यस्तन्निषेधादनवस्थाप्यः, तस्य भावोऽनवस्थाप्यता, दुष्टतरपरिणामस्याकृततपोविशेषस्य व्रतानामा [ मना ] रोपणम् । (योगशा. स्वो विव. ४-६० ) ।
१ हस्तताल - हाथ से ताडन - श्रादि प्रदान के दोष से अत्यन्त दुष्ट परिणाम होने के कारण व्रतादिक में अवस्थापन की प्रयोग्यता को अनवस्थाप्यता कहते हैं ।
अनवस्थाप्यार्ह - जम्मि पडिसेविए उवट्ठावणाअजोगो, कंचि कालं न वएसु ठाविज्जइ जाव पइविसितवो न चिण्णो, पच्छा य चिण्णतवो तद्दोसोवरश्रो वसु ठाविज्जइ, एयं प्रणवटुप्पारिहं । ( जीत. चू. पू. ६) ।
जिसका सेवन करने पर कुछ काल व्रतों में स्थापना के योग्य नहीं होता, पश्चात् तप का अनुष्ठान करने पर उस दोष के शान्त हो जाने से व्रतों में जो स्थापन के योग्य हो जाता है, इसका नाम अनवस्थाप्यार्ह है । अनवस्थितावधि - १. अनवस्थितं हीयते वर्ध
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जैन- लक्षणावली
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[अनवेक्ष्याप्रमृज्यादान
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च, वर्धते हीयते च प्रतिपतति चोत्पद्यते चेति पुनः पुनरूमिवत् । ( त. भा. १ - २३ ) । २. अन्योऽवधिः सम्यग्दर्शनादिगुणहानि-वृद्धियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्धते यावदनेन वर्धितव्यम्, हीयते च यावदनेन हातव्यं वायुवेगप्रेरितजलोमिवत् । ( स. सि. १-२२; त. वा. १, २२, ४; त. वृ. श्रुत. १-२२; सुखबो. वू. १-२२) । ३. जमोहिणाणमुप्पण्णं संत कावि वढदि, कयावि हायदि, कयावि श्रवट्ठाण - भावमुवणमदि; तमणवट्ठिदं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. २४) । ४. विशुद्धेरनवस्थानात् सम्भवेदनवस्थितः । (त. श्लोक १, २२); नावतिष्ठते क्वचिदेकस्मिन् वस्तुनि शुभाशुभानेकसंयमस्थानलाभात् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १-२३) । ५. यत्कदाचिद्वर्धते, कदाचिद्धीयते, कदाचिदवतिष्ठते च तदनवस्थितम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३७२) ।
१ जो अवधिज्ञान वायु से प्रेरित जल की लहर के समान हानि को प्राप्त होता है व बढ़ता भी है, बढ़ता है व हानि को भी प्राप्त होता है तथा च्युत भी होता है व उत्पन्न भी होता है; उसे श्रनवस्थित श्रवधि कहते हैं । २ जो अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन आदि गुणों की हानि और वृद्धि के योग से जितने प्रमाण में उत्पन्न हुआ है उससे जहाँ तक बढ़ना चाहिए बढ़ता भी है, और जहां तक हानि को प्राप्त होना चाहिए हानि को भी प्राप्त होता है, उसे अनवस्थित अवधिज्ञान कहा जाता है ।
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श्रनवक्ष्याप्रमृज्य संस्तार —– संस्तीर्यते यः प्रतिपन्नपोषधव्रतेन दर्भ - कुश - कम्बलि-वस्त्रादिः संस्तारः, स चावेक्ष्य प्रमार्ण्य च कर्तव्यः, श्रनवेक्ष्याप्रमार्ण्य च करणेऽतिचारः । इह चानवेक्षणेन दुरवेक्षणम् श्रप्रमार्जनेन दुष्प्रमार्जनं संगृह्यते । (योगशा. स्वो विव. ३-११८) ।
भली भांति देखे और प्रमार्जन किये बिना ही दर्भशय्यादि के बिछाने को अनवेक्ष्याप्रमृज्य संस्तार कहते हैं । यह पोषघव्रत का तीसरा श्रतिवार है ।
अनवेक्ष्याप्रमृज्यादान — प्रदानं ग्रहणं यष्टि- पीठफलकादीनाम्, तदप्यवेक्ष्य प्रमृज्य च कार्यम्; अनवेक्षितस्याप्रमार्जितस्य चादानमतिचारः । श्रादानग्रहणेन निक्षेपोऽप्युपलक्ष्यते यष्ट्यादीनाम् तेन सोऽप्यवेक्ष्य प्रमार्ण्य च कार्यः । अनवेक्ष्याप्रमृज्य च
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