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श्रनन्तावबोध ]
ओही जस्स सो तोही । XX X अधवाऽवयवविणासाणं वाचो अंतसद्दी घेत्तव्वो, प्रोही मज्जाया उक्कस्साणंतादो पुधभूदा । अन्तश्च अवधिश्च अन्तावधी, न विद्यते तौ यस्य स अनन्तावधिः । अभेदाज्जीवस्यापीयं संज्ञा । अनन्तावधयश्च ते जिना
श्रनन्तावधिजिना: । ( धव. पु. ६, पृ. ५१-५२ ) । जिस ज्ञान की अवधि (मर्यादा) उत्कृष्ट प्रनन्त है, अर्थात् जो ज्ञान अनन्त वस्तुनों को विषय करता है, वह अनन्तावधि कहलाता है; ऐसा ज्ञान जिन जिनों के — कर्मविजेताओं के होता है उन्हें अनन्तावधिजिन जानना चाहिए । अनन्तावबोध - प्रतीतानागत- वर्तमानाऽनन्तार्थ व्यं जनपर्यायात्मक सूक्ष्मान्तरित दूरार्थेषु अनन्तेषु श्रप्रतिबद्धप्रवृत्ति रमलः केवलाख्योऽनन्तावबोधः । (लघुस. सि. पू. ११६) ।
त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों को श्रनन्त श्रर्थपर्यायों और व्यंजनपर्यायों को, तथा सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों को निर्बाधरूप से जानने वाला निर्मल केवलज्ञान अनन्तावबोध कहलाता है । अनन्तोपभोग १. निरवशेषस्योपभोगान्तरायस्य
४६, जैन - लक्षणावली
[ अनभिगृहीता दृष्टि
त्येव, न ह्रासमायाति स्वकालावधेरारात् । X X x एवं हि तीव्रपरिणामप्रयोगबीजजनितशक्ति तदायुरात्तमतीतजन्मनि न शक्यमन्तराल एवावच्छेत्तुमित्यनपवर्तनीयमुच्यते । ( त. भा. सिद्ध. वृ. २-५१)।
कर्म की जितनी स्थिति बांधी गई है उतनी ही स्थिति का वेदन करना व अपने काल की अवधि के पूर्व उसका विघात नहीं होना, इसका नाम उसकी अपवर्तनीयता है । अभिप्राय यह है कि अपवर्तनीय श्रायु वह कही जाती है जिसका विघात पूर्व जन्म में बांधी गई स्थिति के पूर्व किसी भी प्रकार से न हो सके ।
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अनभि (धि) गतचारित्रार्य - अन्तश्चारित्रमोहक्षयोपशमसद्भावे सति बाह्योपदेशनिमित्तविरतिपरिणामा अनभि ( धि ) गतचारित्रार्यः । (त. वर. ३, ३६, २) ।
अन्तरंग में चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम होने पर और बहिरंग में गुरु के उपदेशादि का निमित्त मिलने पर जो चारित्र रूप परिणाम से युक्त हुए हैं उन्हें अनभिगतचारित्रार्य कहते हैं ।
प्रलयात् प्रादुर्भूतोऽनन्त उपभोगः क्षायिकः । ( स. श्रनभिगृहीत मिथ्यात्व - १. न अभिगृहीतम् अन
सि. २-४ ) । २. निरवशेषोपभोगान्तरायप्रलयादनन्तोपभोगः क्षायिकः । (त. वा. २, ४, ५ ) । उपभोगान्तराय के निर्मूल विनष्ट हो जाने पर जो उपभोग प्रादुर्भूत होता है उसका नाम श्रनन्तोपभोग है ।
भिगृहीतम्, यथैक-द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रियैर्भद्रकैश्च । (पंचसं. स्वो वृ. ४-२ ) । २. परोपदेशं विनापि मिथ्यात्वोदयादुपजायते यदश्रद्धानं तदनभिगृहीतं मिथ्यात्वम् । ( भ. प्रा. विजयो. टी. ५६ ) । ३. अनभिगृहीतं परोपदेशं विनापि मिथ्यात्वोदयाज्जातम् । भ. प्रा. मूला. टी. ५६) ।
श्रनपनीतत्व - श्रनपनीतत्वं कारक-काल-वचन-लिङ्गादिव्यत्ययरूपवचनदोषापेतता । (समवा. श्रभय. वृ. ३५; रायप, मलय. वृ. पू. १७) । कारक, काल, वचन और लिंग श्रादि के व्यत्ययरूप वचनदोष से रहित वाक्यप्रयोग को अनपनीतत्व कहते हैं ।
२ परोपदेश के बिना ही मिथ्यात्व कर्म के उदय से जो तत्वों का श्रश्रद्धान उत्पन्न होता है, उसे अनभिगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं ।
श्रनपवर्तन - श्रनपवर्तनं यथावस्थितिकं पुरा बद्ध तस्य तावत्स्थितिकस्यैवानुभवनम् । ( संग्रहणी वृ. २५६)।
पूर्व में बांधी हुई कर्मस्थिति का ह्रास न होकर उतनी ही स्थितिरूप कर्म का अनुभवन करने को अपवर्तन कहते हैं । अभिगृहीता दृष्टि - सर्वप्रवचनेष्वेव साधुदृष्टिश्रनपवर्तनीय - अनपवर्तनीयं पुनस्तावत्कालस्थि- रनभिगृहीत मिथ्यादृष्टिः । सर्वमेव युक्त्युपपन्नमयु
ल. ७
अनभिगृहीता क्रिया - अनभिगृहीताऽनभ्युपगतदेवताविशेषाणां तत्त्वार्थश्रद्धानम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६) ।
देवताविशेष को स्वीकार न करने वालों के तत्त्वाश्रद्धान को- विपरीत तत्त्वश्रद्धा को - अनभिगृहीता क्रिया कहते हैं ।
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