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अधिक]
३८, जैन-लक्षणावली [अधि (अभि) गतचारित्रार्य होता है, उसे यथाप्रवृत्त या अधःप्रवृत्तसंक्रम करणं च । (त. भा. ६-८)। कहते हैं। ३ अपने बन्ध की सम्भावना रहने पर जहाँ पुरुषों के प्रयोजन अधिकृत अर्थात् प्रस्तुत होते जो बन्धप्रकृतियों का प्रदेशसंक्रम-परप्रकृतिरूप हैं वह अधिकरण-द्रव्य-कहलाता है, यह अघिपरिणमन-होता है उसे अधःप्रवृत्तसंक्रम कहा करण का निरुक्त लक्षण है। जाता है।
अधिकरणक्रिया--देखो प्राधिकरणिकी क्रिया । अधिक (सूत्रदोष)-वर्णादिभिरभ्यधिकमधिकम् १. हिंसोपकरणादानं तथाधिकरणक्रिया ॥ (त. xx, अथवा हेतूदाहरणाधिकमधिकम् । यथा- श्लो. ६, ५, ६)। २. अधिक्रियते येनात्मा दुर्गतिअनित्यः शब्दः, कृतकत्व-प्रयत्नानन्तरीयकत्वाभ्यां प्रस्थानं प्रति तदधिकरणं परोपघातिकट-गलपाशादिघट-पटवदित्यादि । (प्राव. हरि. व मलय.वृ.८८१)। द्रव्यजातम्, तद्विषयाऽधिकरणक्रिया। (त. भा. सिद्ध. वर्णादि से अधिक होना, यह अधिक नामका सूत्र- वृ.६-६)। ३. हिंसोपकरणाधिकृति रधिकरणक्रिया। दोष है। अथवा हेतु और उदाहरणसे अधिक होना, (त. सुखबो. व. ६-५)। ४. अधिक्रियते स्थाप्यते इसे अधिक नामका सूत्रदोष समझना चाहिए। नरकादिष्वात्माऽनेनेत्यधिकरणमनुष्ठानविशेषो बाह्य जैसे-'शब्द अनित्य है। इस प्रतिज्ञावाक्य की पुष्टि वस्तु वा चक्र-खड्गादि, तत्र भवा तेन वा निर्वता के लिए कृतकत्व व प्रयत्नानन्तरीयत्व रूप हेतु और प्राधिकरणिकी। (प्रज्ञाप. मलय. व. २२-२७६); घट-पदादिरूप उदाहरण का अधिक प्रयोग। प्राधिकरणिकी खड्गादिप्रगुणीकरणम् । (प्रज्ञा अधिकमास–१. तन्मध्ये (युगमध्ये)ऽन्ते चाधिक- मलय. वृ. २२-२८१) । मासौ। (त. भा. ४-१५)। २. तेषां पञ्चानां १ हिंसा के उपकरणों को ग्रहण करना अधिकरणसंवत्सराणां मध्येऽभिवधिताख्येऽधिमासकः, एतदन्ते क्रिया या प्राधिकरणिकी क्रिया कहलाती है। चाभिवधित एव । (त. भा. हरि. वृ. ४-१५)। अधिकरणोदीरक (अहिगरणोदीरण)-अधिकर३. तेषां पंचानां संवत्सराणां मध्येऽभिवधिताख्ये णोदीरकम्-खामिय-उवसमियाई अहिगरणाइं पुणो . संवत्सरेऽधिकमासकः पतति, अन्ते च अभिवधित उदीरेइ। जो कोइ तस्स वयणं अहिगरणोदीरणं एव । (त. भा. सिद्ध वृ. ४-१५)। ४. इगिमासे [ग] भणिग्रं । (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. ५, पृ. १९)। दिणवडढी वस्से बारह दुवस्सगे सदले । अहियो जो क्षमित और उपशान्त अधिकरणों को पुनः मासो पंचयवासप्पजुगे दुमासहिया । (त्रि. सा. उदीर्ण करता है उसके वचन को अधिकरण-उदीरक ४१०)। ५. एकस्मिन् मासे दिनैकवृद्धिः, एकस्मिन् कहा जाता है। वर्षे द्वादशदिनवृद्धिः,दलसहिते द्विवर्षे एकमासोऽधिकः, अधिक-हीन-मान-तुला-मानं प्रस्थादि हस्तादि पञ्चवर्षात्मके युगे द्वौ मासौ अधिकौxxx। च, तुला उन्मानम्, मानं च तुला च मान-तुलम, (त्रि. सा. टी. ४१०)।
अधिकं च हीनं चाधिक-हीनम्, तच्च तन्मान-तुलं च ४ एक मास में एक दिन की वृद्धि होती है। इस (अधिक-हीनमान-तुलम्)। अधिकमाने हीनमानम्, प्रकार से एक वर्ष में १२ दिन की व अढाई वर्षों अधिकतूला हीनतुला चेत्यर्थः । तत्र न्यूनेन मानादिमें एक मास की वृद्धि होती है। यह एक मास ना ऽन्यस्मै ददाति, अधिकेनात्मनो गृह्णातीत्येवअधिक मास कहलाता है । पञ्चवर्षात्मक युग के - मादिकूटप्रयोगो हीनाधिकमानोन्मानमित्यर्थः । (सा. भीतर दो मास अधिक होते हैं।
• ध. स्वो. टीका ४-५०)। अधिकरण-अधिक्रियन्तेऽस्मिन्नर्था इत्यधिकर- नाप-तौल के पात्रों और बांटों को हीनाधिक रखना णम् ॥ अर्थाः प्रयोजनानि पुरुषाणां यत्राधिक्रि- और अधिक से लेना तथा हीन से देना, यह प्रचौ. यन्ते प्रस्तूयन्ते तदधिकरणम्, द्रव्यमित्यर्थः । (त. र्याणवत का अधिक-हीन-मान-तुला नामक अतिवा.६, ६, ५)। २. अधिकरणं द्विविधम्-द्रव्याधि- चार है। करणं भावाधिकरणं च। तत्र द्रव्याधिकरणं छेदन- अधि (प
अधि (अभि)गतचारित्रार्य - चारित्रमोहस्योपभेदनादि, शस्त्रं च दशविधम् । भावाधिकरणमष्टो- शमात् क्षयाच्च बाह्योपदेशानपेक्षा आत्मप्रसादादेव तरसतविधम् । एतदुभयं जीवाधिकरणमजीवाधि. चारित्रपरिणामास्कन्दिनः उपशान्तकषायाः क्षीण
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