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अदीक्षाब्रह्मचारी] ३३, जैन-लक्षणावली
[श्रद्धापल्य देने की इच्छा के बिना जो परित्याग किया जाता समयादिरूप काल अढ़ाई द्वीप में प्रवर्तमान है वह है, इसका नाम अदित्साप्रत्याख्यान है।
प्रद्धाकाल कहलाता है। अदीक्षाब्रह्मचारी - १. अदीक्षाब्रह्मचारिणो अद्धाद्धामिश्रिता (अद्धाद्धामीसिया)-१. तथा वेषमन्तरेणाभ्यस्तागमा गृहधर्मनिरता भवन्ति । दिवसस्य रात्रे, एकदेशोऽद्धाद्धा, सा मिश्रिता यया (चा. सा. पृ. २०; सा. ध. स्वो. टी. ७-१६)। सा अद्धाद्धामिश्रिता। (प्रज्ञाप. मलय. वृ.१-१६५)। २. वेषं विना समभ्यस्तसिद्धान्ता गृहधर्मिणः । ये २. रयणीए दिवसस्स च देसो देसेण मीसियो जत्थ । ते जिनागमे प्रोक्ता अदीक्षाब्रह्मचारिणः ।। (धर्म. भन्नइ सच्चामोसा अद्धाद्धामीसिया एसा। (भाषार. श्रा. ६-१७)।
६); रजन्या दिवसस्य वा देशः प्रथमप्रहरादि१ ब्रह्मचारी का वेष धारण किये बिना ही गुरु के लक्षणो देशेन द्वितीयप्रहरादिलक्षणेन यत्र मिश्रितों समीप आगम का अभ्यास कर तत्पश्चात् गृहस्था- भण्यते एसा प्रद्धाद्धामिश्रिता सत्यामृषा । (भाषार. श्रम के स्वीकार करने वालों को प्रदीक्षाब्रह्मचारी स्वो. टी. ६७)। कहते हैं।
दिन या रात्रि के एक देश का नाम प्रद्धाद्धा है, अदष्टदोष-१. अदष्टम् प्राचार्यादीनां दर्शनं उससे मिश्रित भाषा को प्रद्धाद्वामिश्रिता भाषा पृथक त्यक्त्वा भूप्रदेशं शरीरं चाप्रतिलेख्याऽतद्गत- कहते हैं। जैसे--कोई किसी को शीघ्र तैयार हो मनाः पृष्ठदेशतो वा भूत्वा यो वन्दनादिकं करोति जानेके विचार से प्रथम पौरुषी (प्रहर-पाद प्रमाण तस्यादृष्टदोषः । (मूला. वृ. ७-१०६)। २. अदृष्टं छाया) के होते हुए यह कहता है कि चल मध्याह्न गुरुदृग्मार्गत्यागो वाऽप्रतिलेखनम् । (अन. ध. ८, (दोपहर) हो गया। १०८)।
प्रद्धानशन--प्रद्धाशब्दः कालसामान्यवचनश्चतुर्था१प्राचार्य आदि का दर्शन न करके अन्यमनस्क होते दिषण्मासपर्यन्तो गृह्यते। तत्र यदनशनं तदद्धानहुए अथवा पृष्ठ भागसे शरीर और भूमि के शुद्ध किये शनम् । (भ. प्रा. विजयो. २०६)। २. अद्धाशब्दश्चबिना ही बन्दना करने को अदृष्टदोष कहते हैं। तुर्थादिषण्मासपर्यन्तो गृह्यते, तत्राहारत्यागोऽद्धानशनं अथवा उनके पीछे स्थित होकर वन्दनादि करने को कालसंख्योपवास इत्यर्थः। (भ. प्रा. मूला. टी. अदृष्ट दोष कहा जाता है।
२०६) प्रदेश-कालप्रलापी-कज्जविवत्ति दर्छ भणाइ अद्धा शब्द कालसामान्य का वाचक है, उससे यहां पुट्वि मए उ विण्णायं । एवमिदं तु भविस्सइ चतुर्थ (एक दिन) से लेकर छह मास तक का प्रदेशकालप्पलावी उ॥ (वृहत्क. ७५४)। काल लिया गया है। इस काल के भीतर जो कार्य के विनाश को देख कर जो यह कहता है कि आहार का परित्याग किया जाता है उसे अद्ध यह तो मैंने पहले ही जान लिया था कि भविष्य कहते हैं । में यह इस प्रकार होगा। जैसे-किसी साधु ने श्रद्धानिषेकस्थितिप्राप्तक (अद्धाणिसेगट्ठिदिपपात्र का लेपन किया, तत्पश्चात् सुखाते हुए वह तय) -जं कम्म जिस्से टिदीए णिसित्तमणोप्रमादवश फूट गया, यह देखकर कोई अपने चातुर्य कड्डिदमणुकड्डिदं च होदूण तिस्से चेव ट्ठिदीए उदए को प्रगट करता हुया कहता है कि जब इसका दिस्सदि तमद्धाणिसेगट्ठिदिपत्तयं णाम । (धव. पु. संस्कार करना प्रारम्भ किया गया था तभी मैंने १०, पृ.११३)। जान लिया था कि यह सिद्ध होकर भी फूट जावेगा। जो कर्म जिस स्थिति में निषिक्त है वह अपकर्षण इस प्रकार जो अवसर को न देखकर कहता है वह व उत्कर्षण से रहित होकर उसी स्थिति में जब प्रदेश-कालप्रलापी है।
उदय में दिखता है तब उसे श्रद्धानिषे स्थितिप्रद्धाकाल-चन्द्र - सूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽर्धतृतीय- प्राप्तक कहा जाता है। द्वीप-समुद्रान्तर्वर्त्यद्धाकाल: समयादिलक्षणः । (प्राव. श्रद्धापल्य (श्रद्धारपल्ल)-१. उद्धाररोमराशि हरि. व मलय. वृ. नि. ६६०)।
छेत्तूणमसंखवाससमयसमं ॥ पुव्वं व विरविदेणं चन्द्र-सूर्य आदि की क्रिया से परिलक्षित होकर जो तदिमं श्रद्धारपल्लणिप्पत्ती । (ति.प. १, १२८-२९) ल.५
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