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अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष] ३०, जैन-लक्षणावली
[अत्यन्ताभाव ३. अवधीकृत्य समयं वर्तमानं विवक्षितम् । भूतः का केवलज्ञान प्रतीर्थकरसिद्धकेवलज्ञान कहलाता है। समयराशियः कालोऽतीतः स उच्यते ॥ (लोकप्र. अतीर्थसिद्ध-१. अतीर्थे सिद्धा अतीर्थसिद्धाः, तीर्था२८-२९६)।
न्तरसिद्धा इत्यर्थः। श्रूयते च 'जिणंतरे साहवोच्छेप्रो २ वर्तमान समय को अवधि करके जो समयराशि
त्ति' तत्रापि जातिस्मरणादिना अवाप्तापवर्गमार्गाः बीत चुकी है उस सब समयराशि का नाम प्रतीत
सिध्यन्ति एवम् । मरुदेवीप्रभृतयो वा अतीर्थसिद्धाकाल है।
स्तदा तीर्थस्यानुत्पन्नत्वात् । (श्रा. प्र. टी. ७६) । प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष-अतीन्द्रियप्रत्यक्ष व्यवसायात्मकं
२. अतीर्थे जिनान्तरे साधुव्यवच्छेदे सति जातिस्मरस्फुटमवितथमतीन्द्रियमव्यवधानं लोकोत्तरमात्मार्थ
णादिनावाप्तापवर्गमार्गाः सिद्धा अतीर्थसिद्धाः । (योगविषयम् । (लघी. स्वो. व. ६१)।
शा. स्वो. विव.३-१२४) । ३. तीर्थस्याभावोऽतीजो मिश्चय स्वरूप ज्ञान अतिशय निर्मल, यथार्थ
र्थम् । तीर्थस्याभाबश्चानुत्पादोऽपान्तराले व्यवच्छेदो भ्रान्ति से रहित, इन्द्रियव्यापार से निरपेक्ष, देशादि
वा, तस्मिन् ये सिद्धास्तेऽतीर्थसिद्धाः। (प्रज्ञाप. मलय. व्यवधान से रहित, समस्त लोक में उत्कृष्ट तथा
व. १-७)। ४. तीर्थस्याभावेऽनुत्पत्तिलक्षणे आन्तनिज को व बाह्य अर्थ दोनों को ही विषय करने
रालिकव्यवच्छेदलक्षणे वा सति सिद्धा अतीर्थसिद्धाः वाला है वह प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा जाता है।
मरुदेव्यादयः, सुविधिस्वाम्याद्यपान्तराले विरज्याप्तप्रतीन्द्रिय सुख---यत्पुनः पञ्चेन्द्रियविषयव्यापार
महोदयाश्च । (शास्त्रवा. यशो. टी. ११, ५४)। रहितानां निर्व्याकुलचित्तानां पुरुषाणां सुखं तदती
१ तीर्थ से अभिप्राय चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ अथवा प्रथम न्द्रियसुखम् । पञ्चेन्द्रिय-मनोजनितविकल्पजाल
गणधर का है। उनके न होते हए जो तीर्थान्तर रहितानां निर्विकल्पसमाधिस्थानां परमयोगिनां
में सिद्ध होते हैं वे प्रतीर्थसिद्ध हैं । उस समय तीर्थ रागादिरहितत्वेन स्वसंवेद्यमात्मसुखं तद्विशेषेणा
के उत्पन्न न होने से मरुदेवी प्रादि भी प्रतीर्थसिद्ध तीन्द्रियम् । यच्च भावकर्म-द्रव्यकर्मरहितानां सर्व
माने गये हैं। प्रदेशाह्लादकपारमार्थिकपरमानन्दपरिणतानां मूक्तात्मनामतीन्द्रियसुखं तदत्यन्तविशेषेण नेतव्यम् ।
प्रतीर्थसिद्धकेवलज्ञान - यत् पुनस्तीर्थकराणां बृहद्रव्यसं. ३७)।
तीर्थेऽनुत्पन्ने व्यवच्छिन्ने वा सिद्धास्तेषां यत् केवलइन्द्रिय व मन की अपेक्षा न रख कर प्रात्म मात्र की
ज्ञानं तदतीर्थसिद्ध केवलज्ञानम् । (प्राव. मलय. व. अपेक्षा से जो निराकुल-निर्बाध-सुख प्राप्त होता
७८, पृ. ८४)।
जो तीर्थंकरों के तीर्थ के उत्पन्न न होने पर या है वह अतीन्द्रिय सुख है। . प्रतीर्थकरसिद्ध-१. अतीर्थकरसिद्धाः सामान्य
उसके विच्छिन्न हो जाने पर सिद्ध हए हैं उनके केवलित्वे सति सिद्धाः। (योगशा. स्वो. विव. ३,
केवलज्ञान को प्रतीर्थसिद्धकेवलज्ञान कहा जाता है। १२४)। २. अतीर्थकरा: सामान्यकेवलिनः सन्तः अत्यन्तानुपलब्धि--अत्थस्स दरिसणम्मि वि लद्धी सिद्धा अतीर्थकरसिद्धाः । (शास्त्रवा. टी. ११-५४)। एगंततो न संभवइ । दलृ पि न याणते बोहियपंडा ३. अतीर्थकरसिद्धा अन्ये सामान्यकेवलिनः । (श्रा. फणस सत्तू ॥ (बृहत्क. भा. ४७)। प्र. टी. ७६)।
अर्थ के-पदार्थ के-प्रत्यक्ष देखते हुए भी उससे ३ सामान्य केवली होकर सिद्ध होने वाले जीवों को अपरिचित होने के कारण जो उसका सर्वथा परिप्रतीर्थकरसिद्ध कहते हैं।
ज्ञान नहीं होता है उसे अत्यन्तानुपलब्धि कहते हैं । प्रतीर्थकरसिद्धकेवलज्ञान-तीर्थकराः सन्तो ये
जैसे-पश्चिम दिशा में रहने वाले म्लेच्छ वहाँ सिद्धास्तेषां केवलज्ञानं तीर्थकरसिद्धकेवलज्ञानम्,
कटहल के न होने से उस कटहल को और पाण्डप शेषाणामतीर्थकरसिद्ध केवलज्ञानम् । (प्राव. मलय.
(देशविशेष में उत्पन्न) जन सत्तू को देखते हुए भी वृ.७८, पृ. ८४)।
विशिष्ट नामादि से उसे नहीं जानते हैं। तीर्थकर होकर सिद्ध होने वालों का केवलज्ञान अत्यन्ताभाव-१. शशशृंगादिरूपेण सोऽत्यन्तातीर्थकरसिद्ध केवलज्ञान और शेष सिद्ध होने वालों भाव उच्यते । (प्रमाल. ३८६)। २. अत्यन्ताभावः
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