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अचारित्र ]
प्रचारित्र ( प्रच्चरिद ) चारित पडिणिबद्ध कसायं जिणवरेहिं पण्णत्तं । तस्सोदएण जीवो अच्चरिदो होदि णादव्वो ॥ समयप्रा. १७३ ) । चारित्ररोधक कषाय के उदय से चारित्र के प्रतिकूल आचरण करने को प्रचारित्र या प्रसंयमभाव कहते हैं ।
प्रचित्त - १. श्रात्मनः परिणामविशेषश्चित्तम् ॥ १ ॥ श्रात्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम्, तेन रहितम् ग्रचित्तम् । ( त. वा. २ - ३२ ) । २. न विद्यते चित्तमस्मिन्नित्यचित्तम् अचेतनं जीवरहितं प्रासुकं वस्तु । ( अभि. रा. भा. १, पृ. १८५ ) ; पत्ताणां पुफाणं सरडुफलाणं तहेव हरियाणं । विटम्मि मिलाणम्मि य णायव्वं जीवविप्पजढं || ६ || ( श्रभि. रा. भा. १, पृ. १८६ ) ।
१ जो योनि चैतन्य परिणामविशेष से रहित प्रदेशोंवाली होती है, वह अचित्त कही जाती है । चित्तकाल अचित्तकालो जहा - धूलीकालो चिक्खल्लकालो उण्हकालो वरिसाकालो सीदकालो इच्चेवमादि | ( धव. पु. ११, पृ. ७६) ।
शीत, उष्ण, वर्षा और धूलि आदि के निमित्त से तत्सम्बद्ध काल को भी प्रचित्तकाल कहते हैं । प्रचित्तगुणयोग ( ( प्रच्चित्तगुणजोग) - अच्चित्तगुणजोगो जहा रूव-रस-गंध-फासादीहि पोग्गलदब्वजोगो आगासादीणमप्पप्पणी गुणेहि सह जोगी वा । ( धव. पु. १०, पृ. ४३३) ।
रूप, रस. गन्ध और स्पर्श श्रादि श्रचित्त गुणों के साथ पुद्गल का तथा इसी प्रकार अन्य श्राकाश श्रादि द्रव्यों का भी अपने-अपने गुणों के साथ जो संयोग है, उसे चित्तगुणयोग कहते हैं । प्रचित्ततद्व्यतिरिक्तद्रव्यान्तर (चित्ततव्वदिरित्तदव्वंतर ) - प्रचित्ततव्वदिरित्तदव्वंतरं नामं घणो हि तणुवादाणं मज्झे ट्ठियो घणाणिलो । ( धव. पु. ५, पृ. ३) ।
धनोदधि और तनुवात के मध्य में स्थित घनानिल को चित्त तद्व्यतिरिक्त द्रव्यान्तर कहते हैं । चित्तद्रव्यपूजा - १. तेसि ( जिणाईनं ) च शरीराणं दव्वसुदस्स वि श्रचित्तपूजा सा । ( वसु. श्रा. गा. ४५० ) । २. तेषां तु यच्छरीराणां पूजनं सापचना । (ध. सं. श्री. ६, ६३ ) ।
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१७, जैन- लक्षणावली
[चित्तद्रव्योपक्रम
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जिनदेवादि के चित्त - पौद्गलिक – जड़ शरीरकी और द्रव्यश्रुत की भी जो पूजा की जाती है, वह श्रचित्तद्रव्यपूजा कहलाती है । श्रचित्तद्रव्यभाव (प्रचित्तदव्वभाव ) अचित्तदव्वभावो दुविहो— मुत्तदव्वभावो प्रमुत्तदब्वभावो चेदि । तत्थ वण्ण-गंध-रस- फासादियो मुत्तदव्वभाव । श्रवगाहणादियो प्रमुतदव्वभावो । [ श्रचेदणाणं मुत्तामुत्तदव्वाणं भावो चित्तदव्वभावो ।] ( धव. पु. १२, पृ. २) ।
श्रचित्तद्र यभाव दो प्रकारका है - मूर्तद्रव्यभाव और अमूर्तद्रव्यभाव । उनमें वर्ण गन्धादि भाव मूर्तद्रव्यभाव और श्रवगाहन प्रादि भाव अमूर्तद्रव्यभाव है । इन दोनों ही भावों को मूर्त व अमूर्त चित्त (जीव ) द्रव्योंके परिणामों को- प्रचित्तद्रव्यमाव समझना चाहिये । श्रचित्तद्रव्य वेदना (श्रचित्तदव्व वेयरणा ) - प्रचितदव्ववेयणा पोग्गल - कालागास-धम्माधम्मदव्वाणि । ( धव. पु. १०, पृ. ७) ।
अचेतन पुद्गल, काल, प्रकाश, धर्म और धर्म द्रव्यों को अचित्तनोकर्म-नोश्रागमद्रव्यवेदना कहते हैं ।
अचित्तद्रव्यस्पर्शन ( श्रचित्तदव्व फोसरण) अचित्ताणं दव्वाणं जो अण्णोष्णसंजोप्रो सो प्रचित्तदव्वफोसणं । ( धव. पु. ४, पृ. १४३ ) । प्रचेतन द्रव्यों का जो पारस्परिक संयोग है, वह श्रचित्तद्रव्यस्पर्शन है । अचित्तद्रव्योपक्रम - १. अचित्तद्रव्योपक्रमः कनकादेः कटक - कुण्डलादिक्रिया । (उत्तरा. नि. वृ. १, २८) । २. से किं तं प्रचित्तदव्वोवक्कमे ? खंडा
गुडाई मच्छंडीणं से तं प्रचित्तदव्वोवक्कमे । ( अनुयो. सू. ६५) । ३. खंडादय: प्रतीता एव । नवरं मच्छंडी खंडशर्करा, एतेषां खण्डाद्यचित्तद्रव्याणामुपायविशेषतो माधुर्यादिगुणविशेषकरणं परिकर्मणि सर्वथा विनाशकरणं वस्तुनाशे अचित्तद्रव्योपक्रमः । श्रनुयो. मल. हेम. वृ. सू. ६५) ।
१ सोना-चांदी श्रादि श्रचित्त द्रव्यों के कड़ा व कुंडल श्रादि बनाने की प्रक्रिया को श्रचित्तद्रव्योपक्रम कहते हैं । ३ खांड व गुड़ आदि श्रचेतन द्रव्यों में उपायविशेष से माधुर्यादि गुणों के उत्पादन की प्रक्रिया को भी प्रचित्तद्रव्योपक्रम कहते हैं ।
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