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प्रस्तावना
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तत्त्वार्थभाष्य में उपभोग - परिभोगव्रत के प्रसंग में यह कहा गया है कि प्रशन-पान, खाद्य, स्वाद्य, गन्ध और माला आदि तथा वस्त्र, अलंकार, शयन, श्रासन, गृह, यान और वाहन भादि जो बहुत पापजनक पदार्थ हैं; उनका परित्याग करना तथा अल्प पापजनक पदार्थों का परिमाण करना, इसका नाम उपभोग- परिभोगव्रत है। यहां यद्यपि उपभोग और परिभोग के लक्षणों का स्पष्ट निर्देश नहीं किया गया है, फिर भी जिस क्रम से उक्त व्रत का लक्षण कहा गया है उससे यह स्पष्ट है कि जो एक बार भोगने में आता है उसे उपभोग और जो अनेक बार भोगने में प्राता है उसे परिभोग कहा नाता है ।
तत्त्वार्थ सूत्र की हरिभद्र सूरि विरचित भाष्यानुसारिणी टीका ( २-४ ) में कहा गया है कि उचित भोग के साधनों की प्राप्ति में जो निर्विघ्नता का कारण है उसे क्षायिक भोग और उचित उपभोग के साधनों की प्राप्ति में जो निर्विघ्नता का कारण है उसे क्षायिक उपभोग कहा जाता है । यहीं पर आगे उन दोनों में भेद प्रगट करते हुए यह कहा गया है कि जो एक बार भोगा जाता है वह भोग और जो बार-बार भोगा जाता है वह उपभोग कहलाता है । जैसे क्रमशः भक्ष्य-पेय आदि और वस्त्र पात्र श्रादि ।
आगे (६-२६) यहाँ उक्त भोग और उपभोग के लक्षणों में कहा नया है कि मनोहर शब्दादि विषयों के अनुभवन को भोग और अन्न, पान व वस्त्रादि के सेवन को उपभोग कहते हैं ।
उपभोग - परिभोगपरिमाणव्रत के प्रसंग में यहाँ ( ७-१६ ) इतना मात्र कहा गया है कि उपभोग व परिभोग शब्दों का व्याख्यान किया जा चुका है। तदनुसार एक ही बार भोगे जाने वाले पुष्पाहारादि को उपभोग और बार-बार भोगे जाने वाले वस्त्रादि को परिभोग जानना चाहिए ।
तत्त्वार्थभाष्य की सिद्धसेन गणि विरचित टीका ( २-४ ) में कहा गया है कि उत्तम विषयसुख के अनुभव को भोग कहते हैं, श्रथवा एक बार उपयोग में आने के कारण भक्ष्य, पेय और लेह्य श्रादि पदार्थों को भोग समझना चाहिए । विषय-सम्पदा के होने पर तथा उत्तरगुणों के प्रकर्ष से जो उनका अनुभवन होता है, इसका नाम उपभोग है; श्रथवा बार-बार उपभोग के कारण होने से वस्त्र व पात्र आदि करे उपभोग कहा जाता है ।
आगे (६-२६) हरिभद्र सूरि के समान सिद्धसेन गणि ने भी उन्हीं के शब्दों में मनोहर शब्द आदि विषयों के अनुभवन को भोग तथा अन्न, पान व वस्त्र आदि के सेवन को उपभोग कहा है । अनर्थदण्डविरति के प्रसंग में (७-१६) सिद्धसेनगणि उन दोनों का निरुक्तार्थ करते हुए कहते हैं कि 'उपभुज्यत इत्युपभोगः ' इसमें 'उप' का अर्थ 'एक बार' है, तदनुसार जो पुष्पमाला आदि एक ही बार भोगी जाती है, उन्हें उपभोग कहा जाता हैं । अथवा 'उप' शब्द का अर्थ 'अम्यन्तर' है तदनुसार अन्तर्भोगरूप आहार आदि को उपभोग कहा जाता है । 'परिभुज्यत इति परिभोग :' इस निरुक्ति में 'परि' शब्द का अर्थ 'बार बार' है । तदनुसार जिन्हें बार-बार भोगा जाता है ऐसे वस्त्र, गन्ध - माला और अलंकार आदि को परिभोग जानना चाहिए ।
सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक के समान हरिभद्र सूरि और सिद्धसेन गणि के द्वारा भी जो पूर्व में (२-४) उपभोग का लक्षण कहा गया है उससे पीछे (७-१६) निर्दिष्ट किया गया उसी का लक्षण भिन्न है ।
पीछे के अधिकांश ग्रन्थकारों ने बार-बार भोगे जाने वाले पदार्थों को ही उपभोग माना 1 श्रुतसागर सूरि ने 'उपभोग- परिभोगपरिमाणम्' के स्थान में 'भोगोपभोगपरिमाणम्' पाठान्तर ' की है, पर वह कहाँ उपलब्ध होता है, इसका कुछ निर्देश नहीं किया ।
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