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अकालमृत्यु ४, जैन-लक्षणावली
[अकृतयोगी अकालमृत्यु-अकाल एव जीवितभ्रंशोऽकालमृत्युः। ४ सिद्ध अथवा प्रत्यक्षादि से बाधित साध्य की (अभि. रा. भा. १, पृ. १२५)।
सिद्धि के लिए प्रयुक्त हेतु अकिंचित्कर-कुछ भी असमय में-बद्ध आयुःस्थिति के पूर्व में ही- नहीं करने वाला होता है। जीवित का नाश होना अकालमृत्यु है। अकुशल-अकुशलं दुःखहेतुकम् । (प्राप्तमी. व. अकालुष्य- तेषामेव ( क्रोध-मान-माया-लोभा
का.८)। नामेव) मन्दोदये तस्य (चित्तस्य) प्रसादोऽकालुष्यम्। दुःख देने वाले पापकर्म को अकुशल कहते हैं। तत् कादाचित्कविशिष्टकषायक्षयोपशमे सत्यज्ञानिनो- अकुशलभाव-अकुशलो ( भावो ) ऽविरत्यादिऽपि भवति । कषायोदयानुवृत्तेरसमग्रव्यावर्तितोप- रूपः। (व्यव. सू. भा. मलय. व. १-३६, पृ. १६)। योगस्यावान्तरभूमिकासु कदाचित् ज्ञानिनोऽपि भव- असंयम (प्रविरति ) आदि रूप परिणामों को तीति । (पंचा. का. अमृत. वृ. १३८)।
अकुशलभाव कहते हैं। क्रोधादि कषायों का मन्द उदय होने पर जो अकुशलमनोनिरोध - अकुशलस्यातध्यानाद्युपगचित्त की निर्मलता होती है उसका नाम प्रका- तस्य मनसो निरोधोऽकुशल मनोनिरोधः। (व्यव.
सू. भा. मलय. वृ. १, गा. ७७, पृ. ३०)। अकिंचनता-१. अकिंचनता सकलग्रन्थत्यागः । वार्तध्यान प्रादि से युक्त मन के निग्रह करने को (भ. प्रा. विजयो. टी. गा. १४६)। २. अकिंच- अकुशलमनोनिरोध कहते हैं। णदा-नास्य किंचनास्त्यकिंचनः, अकिंचनस्य भाव अकृतप्राग्भार-शून्यं गृहं गिरेगुहा वृक्षमूलम् आकिंचन्यमकिंचनता उपात्तेष्वपि शरीरादिषु संस्का- आगन्तुकानां वेश्म देवकुलं शिक्षागृहं केनचिदकृतम् रापोहाय ममेदमित्यभिसन्धिनिवृत्तिः । (मूला. वृ. अकृतप्राग्भारं कथ्यते । (कात्तिके. टी. ४४६)। ११-५)। ३. अकिंचणया णाम सदेहे निसंगता, शून्य गृह, पर्वत की गुफा, वृक्षमूल, प्रागन्तुकों णिम्ममत्तणं त्ति वृत्तं भवइ। (दशवै. च. पृ. १८); का घर, देवकुल और शिक्षालय; जो किसी के द्वारा ४. नास्य किंचन द्रव्यमस्तीत्यकिंचनस्तस्य भावो- रचे नहीं गये हैं, प्रकृत्प्राग्भार कहे जाते हैं। ऽकिंचनता । शरीर-धर्मोपकरणादिष्वपि निर्ममत्वम- अकृतयोगी ( अकडजोगी)-१. अकडजोगी किंचनत्वम् । (योगशा. स्वो. विव. ४-६३)। जोगं अकाऊण सेवइ। (जीतक. चू. पृ. ३, पं. २०)। २ गृहीत शरीर आदि में-पुस्तक व पिच्छी आदि २. ग्लानादौ कार्ये गृहेषु वारत्रयं पर्यटनमकृत्वा सेवते, धर्मोपकरणों में भी संस्कार (सजावट) को दूर यद्वा संथाराइसु तिन्नि वारा एसणीयं अन्निसिउं जया करने की इच्छा से ममत्वबुद्धि न रहना, इसका तइयवाराए वि न लब्भइ तया चउत्थपरिवाडीए नाम अकिंचनता है।
अणेसणीयं घेतव्वं । एवं तिगुणं व्यापारमकृत्वैव जा अकिचित्कर (हेत्वाभास)---१. सिद्धेऽकिंचित्करो [जो]बियवाराए चेव अणेसणीयं गिण्हइ सो अकड. हेतुः स्वयं साध्यव्यपेक्षया ।(प्रमाणसं.४४, पृ. ११०); जोगी। (जीतक. चू. विष. व्या. पृ. ३४-८)। २. तदज्ञाने पुनरज्ञातोऽकिंचित्करः । (सिद्धिवि. वृ. ३. अकृतयोगी अगीतार्थः। त्रीन् वारान् कल्प्यमेष६-३२, पृ. ४३०)। ३. तस्य हेतुलक्षणस्य पक्षेऽन्यत्र णीयं चापरिभाब्य प्रथमवेलायामपि यतस्ततोऽल्पावाऽज्ञाने पुनरज्ञातोऽकिचित्करः । (सिद्धिवि. टी. [कल्प्या-] नेषणीयमपि ग्राही। (व्यव. सू. भा. ६-३२, पृ. ४३०)। ४. सिद्धे प्रत्यक्षादिवाधिते च मलय. वृ. १०, पृ. ६३४)।। साध्ये हेतुरकिंचित्करः ॥ सिद्धः श्रावणः शब्दः, २ ग्लान अदि कार्य में तीन बार गृहों में घूमने शब्दत्वात् ।। किंचिदकरणात्, यथाऽनुष्णोऽग्निद्रव्य- पर भी यदि कल्प्य और एषणीय नहीं प्राप्त होता त्वादित्यादौ किचित्कर्त मशक्यत्वात् ।। (परीक्षा. ६, है तो चौथी बार प्रकल्प्य मौर अनेषणीय के भी लेने ३५-३८) । ५. यथा-प्रतीते प्रत्यक्षादिनिराकृते च का विधान है। इस प्रागमविघि के प्रतिकूल पहिली साध्ये हेतुरकिंचित्करः। (रत्नाव. ६, प. ११४) । या दूसरी बार में ही जो अकल्प्य और अनेष ६. अप्रयोजको हेतुरकिंचित्करः । (न्यायदी. ३, वस्तुओं को ले लेता है ऐसे साधु को प्रकृतयोगी पृ.१०२)।
कहते हैं।
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