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अगृहीतग्रहणाद्धा] १२, जैन-लक्षणावली
[अग्निकुमार गा. १२६२; कर्मस्त. टी. गाथा १०, पृ. २८)। अग्निकाय-पृथिवीकायो मृतमनुष्यादिकाय१५. यदुदयेन लोहपिण्डवद् गुरुत्वेनाधो न भ्रंश्यति, वत् ।XXXX एवमबादिष्वपि योज्यम् । (स. अर्कतूलवल्लघुत्वेन यत्र तत्र नोड्डीयते, तदगुरुलघु- सि. २-१३)। नाम । (त. वृ. श्रुत. ८-११)। १६. यस्योदयादयः- अग्निकायिक जीव के द्वारा परित्यक्त काय पिण्डवद् गुरुत्वान्न च पतति न चार्कतूलवल्लघुत्वा- (शरीर) अग्निकाय कहलाता है । जैसे-मृत दूवं गच्छति, तदगरुलघुनाम । (गो. क. जी. त. मनुष्यादि का निर्जीव शरीर मनुष्यकाय आदि प्र. टी. ३३) ।
कहलाता है। १ जिस नामकर्म के उदय से जीव लोहपिण्ड के अग्निकायिक (अगणिकाइय)-१. पृथिवी कायोऽ. समान भारी होने से न तो नीचे गिरता है और स्यास्तीति पृथिवीकायिकः तत्कायसम्बन्धवशीकृत न पाक की रुई के समान ऊपर उड़ता है वह आत्मा।xxx एवमबादिष्वपि योज्यम् । (स. अगुरुलघु नामकर्म कहलाता है।
सि. २-१३)। २. अगणिकाइयणामकम्मोदइल्ला राणादा-अप्पिदपोग्गलपरियट्टभंतरे जं सव्वे जीवा अगणिकाइया णाम । अगहिदपोग्गलगहणकालो अगहिदगहणद्धा णाम। प. २०८)। (धव. पु. ४, पृ. ३२८)।
जो जीव अग्निरूप शरीर से सम्बद्ध है वह अग्निविवक्षित पुदगलपरिवर्तन के भीतर जो प्रगृहीत कायिक कहलाता है। पुद्गलों के ग्रहण का काल है वह अगृहीतग्रहणाद्धा
अग्निकायिकस्थिति (अगणिकाइयठिदी)-अण्णमामका पुदगलपरिवर्तन काल है।
काइएहितो अगणिकाइएसु उप्पण्णपढमसमये चेव । मिथ्यात्व -१. एकेन्द्रियादिजीवानां घोराज्ञानविवर्तिनाम् । तीवसन्तमसाकारं मिथ्यात्व
- अगणिकाइयणामकम्मस्स उदयो होदि । तदुदयपढम
समयप्पहाडि उक्कस्सेण जाव असंखेज्जा लोगा त्ति मगृहीतकम् । (पञ्चसं. अमित. १-१३५) ।
तदुदयकालो होदि । सो कालो अगणिकाइयट्रिदी २. केषाञ्चिदन्धतमसायतेऽगृहीतम् XXXI (सा. ध. १-५) । ३. अगृहीतं परोपदेशमन्तरेण प्रवृत्त
णाम । (ध. पु. १२, पृ. २०८) । त्वादनुपात्तमनादिसन्तत्या प्रवर्त्तमानस्तत्त्वारुचिरूप
अन्य पर्याय से अग्निकायिक जीवों में उत्पन्न श्चित्परिणामः। (सा. घ. स्वो. टीका १-५)। होने के प्रथम समय में अग्निकायिक नामकर्म ४. अगृहीतं स्वभावोत्थमतत्त्वरुचिलक्षणम । (धर्मसं. का उदय होता है। इस प्रथम समय से लेकर श्रा. ४-३७)।
उत्कृष्ट असंख्यात लोक प्रमाण काल तक उसका ३ परोपदेश के बिना अनादि परम्परा से प्रवर्त- उदय रहता है। इतने काल को अग्निकायिक की मान प्रतत्त्वश्रद्धानरूप परिणति का नाम अगृहीत
स्थिति जानना चाहिए। मिथ्यात्व है।
अग्निकुमार-१. मानोन्मानप्रमाणयुक्ता भास्वन्तोअगृहीता-मृतेषु तेषु (बन्धुवर्गेषु) सैव स्याद- ऽवदाता घटचिह्ना अग्निकुमाराः । (त. भा. ४, गृहीता च स्वैरिणी। (लाटीसं. २-२०१)। ११)। २. अग्निकूमारा भूषणनियुक्तपूर्णकलशरूपअपने अभिभावक बन्धुजनों के मर जाने पर चिह्नधराः । (जीवाजी. वृ. ३-१, पृ. २६१) । स्वेच्छाचार में प्रवृत्त कुलटा स्त्री प्रगृहीता कही ३. अग्निकुमाराः सर्वाङ्गोपाङ्गषु मानोन्मानप्रमाजाती है।
णोपपन्ना विविधाभरणभास्वन्तस्तप्तस्वर्णवर्णाः । अग्नि-विद्युदुल्काऽशनिसंघर्षसमुत्थिता सूर्यमणिसं- (संग्रहणी वृ. १७)। ४. अङ्गन्ति पातालं विहाय सृतादिरूपश्चाग्निः । (प्राचा. शीलांक वृत्ति १, ३, क्रीडार्थमूर्ध्वमागच्छन्तीति अग्नयः । (त. वृ. सू. ३१ गा. ११८ पृ. ४४)।।
श्रुत.४-१०)। जो बिजली, उल्का और वज्र आदि के संघर्ष से ३ जो देव समस्त शरीरावयवों में मान व उन्मान तथा सूर्य और सूर्यकान्त मणि के संयोग से दाहक के प्रमाण से सम्पन्न होते हुए विविध प्राभरणों से वस्तु उत्पन्न होती है उसे अग्नि कहते हैं। अलंकृत, तपे हुए स्वर्ण के समान वर्ण वाले और
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