________________
जैन-लक्षणावली
इसके ऊपर यशोविजय उपाध्याय (विक्रम की १७-१८वीं शताब्दी) विरचित टीका है। इस टीका के साथ वह देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्वार फण्ड बम्बई से तथा मूल मात्र जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर से प्रकाशित हुअा है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
टीका-प्रतीर्थकरसिद्ध, अदत्तादान, अध्यषणा और अनेकसिद्ध आदि ।
५१. षोडशकप्रकरण-इसमें नाम के अनुसार १६-१६ पद्यों के १६ प्रकरण हैं, जो आर्या छन्द में रचे गये हैं। इनमें प्रथम षोडशक को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम वीर जिनको नमस्कार कर सद्धर्मपरीक्षक आदि-बाल, मध्यमबुद्धि और बुध आदि-भावों के लिंग आदि के भेद से संक्षेप में कुछ कहने की प्रतिज्ञा की गई है। कृत प्रतिज्ञा के अनुसार आगे कहा गया है कि बाल-विशिष्ट विवेक से विकल-तो लिग (बाह्य वेष) को देखता है, मध्यमबुद्धि चारित्र का विचार करता है, और बुध (विशिष्ट बुद्धिमान्) प्रयत्नपूर्वक प्रागम तत्त्व की-उसकी समीचीनता व असमीचीनता की-परीक्षा करता है । आगे उक्त बाल आदि के लक्षण निर्दिष्ट किये गये हैं। इस प्रकार से इन सब प्रकरणों में विविध विषयों का विवेचन किया गया है।
इस पर यशोभद्र सूरि विरचित संक्षिप्त टीका है। इस टीका के साथ वह ऋषभदेव जी केशरीमल जी जैन श्वे. संस्था रतलाम से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ हे
मूल-अगुरुलघु और पागम आदि । टीका-अनुबन्धसारा, असदारम्भ और उद्वेग आदि । ८२. अष्टकानि-इसमें ८-८ श्लोकमय ३२ प्रकरण हैं, जो इस प्रकार हैं-१ महादेवाष्टक, २ स्नानाष्टक, ३ पूजाष्टक, ४ अग्निकारिकाष्टक, ५ भिक्षाष्टक, ६ पिण्डाष्टक, ७ प्रच्छन्नभोजनाष्टक, ८ प्रत्याख्यानाष्टक, ९ ज्ञानाष्टक, १० वैराग्याष्टक, ११ तपोऽष्ट क, १२ पादाष्टक, १३ यमाष्टक, १४ नित्यात्मवादनिराकरणाष्टक, १५ क्षणिकवादनिराकरणाष्टक, १६ नित्यानित्याष्टक, १७ मांसभक्षणदूषणाष्टक, १८ अन्यदर्शनीयशास्त्रोक्तमांसभक्षणदूषणाष्टक, १६ मद्यपानदूषणाष्टक, २० मैथुन दूषणाष्टक, २१ सूक्ष्मबुद्धयष्टक, २२ भावशुद्धयष्टक, २३ शासनमालिन्यवर्जनाष्टक, २४ पुण्यादिचतुर्भग्याष्टक, २५ पितृभक्त्यष्टक, २६ महादानस्थापनाष्टक, २७ तीर्थकृद्दानाष्टक, २८ राज्यादिदानदूषणनिवारणाष्टक. २६ सामायिकाष्टक, ३० केवलज्ञानाष्टक, ३१ देशनाष्टक और ३२ सिद्धस्वरूपाष्टक ।
यह अष्टक प्रकरण शस्त्रवार्तासमुच्चय आदि के साथ जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग प्रार्तध्यान आदि शब्दों में हया है।
८३. योगदृष्टिसमुच्चय-इसमें २२६ श्लोक (अनुष्टुप्) हैं । इच्छायोग, शास्त्र और सामर्थ्य योग के भेद से योग तीन प्रकार का है। इनमें सामर्थ्य योग दो प्रकार का है-धर्मसंन्याससंज्ञित और योगसंन्याससंज्ञित । इन सव योगों के लक्षणों का निर्देश करते हुए यहां मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा इन पाठ योगदृष्टियों का यथाक्रम से विवेचन किया गया है । इसके ऊपर स्वयं हरिभद्र सूरि के द्वारा वृत्ति भी लिखी गई है। इस वृत्ति के साथ वह जैन ग्रन्थ प्रकाशक संस्था अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है । इसका उपयोग 'इच्छायोग' आदि शब्दों में हुआ है।
८४. योगबिन्दु-इसमें ५२७ पद्य (अनुष्टप्) हैं। यहां योग से सम्बद्ध विविध विषयों की प्ररूपणा करते हुए जैमिनीय व सांख्य आदि के अभिमत का निराकरण भी किया गया है। इसके ऊपर भी स्वोपज्ञ वृत्ति है। वृत्ति के साथ यह भी पूर्वोक्त जैन ग्रन्थ प्रकाशक संस्था अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है।
८५. योगविशिका-नाम के अनुसार इसमें २० गाथायें हैं। सर्वप्रथम यहाँ योग के स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो परिशुद्ध धर्मव्यापार मोक्ष से योजित कराता है उस सबको योग कहा जाता है। पर प्रकृत में विशेषरूप से स्थानादिगत धर्मव्यापार को ही योग जानना चाहिए । वे स्थान प्रादि पांच ये हैं-स्थान, उर्ण (शब्द), अर्थ, पालम्बन और रहित-रूपी द्रव्य के पालम्बन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org