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जैन - लक्षणावली
इसके ऊपर एक अभयचन्द्राचार्य (वि. की १४वीं शती) विरचित मन्दप्रबोधिका नाम की संस्कृत टीका और दूसरी नेमिचन्द्राचार्य (वि. की १४वीं शती) विरचित जीवतत्त्वप्रदीपिका संस्कृत टीका है । इनमें मन्दप्रबोधिका टीका जीवकाण्ड की २८२वीं गाथा तक ही उपलब्ध है । इन दो टीकाओं के प्रतिरिक्त एक सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नाम की हिन्दी टीका भी है, जो पण्डितप्रवर टोडरमल जी द्वारा जीवतत्त्वप्रदीपिका का अनुसरण कर विस्तार से लिखी गई है । इन तीनों टीकाओं के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ गांधी हरिभाई देवकरण जैन ग्रन्थमाला कलकत्ता से प्रकाशित हो चुका है । संक्षिप्त हिन्दी के साथ वह परमश्रुत प्रभावक मण्डल बम्बई से भी दो भागों में प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ हैमूल- श्रण्डर, अधःप्रवृत्तकरण, श्रनिन्द्रिय जीव, निवृत्तिकरण गुणस्थान, अनिःसृतावग्रह, अनुधोगद्वार श्रुतज्ञान और अप्रमत्तसंयत आदि ।
टीका - अक्षरात्म श्रुतज्ञान, श्रगाढ, अगुरुलघु नामकर्म, अधःप्रवृत्तसंक्रम. ग्रनन्तानुबन्धिक्रोधादि अनुकृष्टि, अनुत्तरोपपादिकदशा, श्रप्रत्याख्यानावरणक्रोधादि, प्रक्षेपिणी कथा और उद्वेलनसंक्रम श्रादि ।
६७. लब्धिसार - यह भी उपर्युक्त नेमिचन्द्राचार्य की कृति है । इसमें दर्शनलब्धि, चारित्रलब्धि र क्षायिकचारित्र ये तीन अधिकार हैं । इनकी गाथासंख्या इस प्रकार है - १६७+२२४+२६१ =६५२ । जैसा कि ग्रन्थकार ने पंचपरमेष्ठियों की वन्दना करते हुए प्रारम्भ में सूचित किया है, तदनुसार वस्तुतः दो ही अधिकार समझना चाहिए - सम्यग्दर्शनलब्धि और चारित्रलब्धि । उपशम और क्षय के भेद से चारित्र दो प्रकार का है । सम्यग्दर्शनलब्धि अधिकार में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का विचार करते हुए यह बतलाया है कि अनादि मिथ्यादृष्टि अथवा सादि मिथ्यादृष्टि जीव चारों गतियों में से किसी भी गति में प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है । विशेष इतना है कि उसे संज्ञी, पर्याप्तक, गर्भज, विशुद्ध-- प्रधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों से उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त - श्रोर साकार उपयोग वाला होना चाहिए । सम्यक्त्वप्राप्ति के पूर्व उसके उन्मुख हुए मिथ्यादृष्टि जीव के ये पांच लब्धियां होती हैं— क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण। इनमें पूर्व की चार लब्धियां तो भव्य और भव्य दोनों के ही सामान्यरूप से हो सकती हैं, पर अन्तिम करणलब्धि भब्य के ही होती है । जब ज्ञानावरणादि ग्रप्रशस्त (पाप) कर्मों की फलदानशक्ति उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हीन होकर उदय को प्राप्त होती है तब उस जीव के प्रथम क्षयोपशमलब्धि होती है । इस क्षयोपशमलब्धि के प्रभाव से जो जीव के साता वेदनीय आदि प्रशस्त कर्मप्रकृतियों के बन्धयोग्य धर्मानुरागरूप परिणति होती है उसे विशुद्धि लब्धि कहा जाता है । जीव-पुद्गलादि छह द्रव्यों और नौ पदार्थों के उपदेशक आचार्य आदि की प्राप्ति को अथवा उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण धारण की प्राप्ति को देशनालब्धि कहते हैं । उक्त तीन लब्धियों से सम्पन्न जीव अब आयु को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थिति को हीन करके ग्रन्तः कोडा कोडि प्रमाण कर देता है तथा प्रशस्त घातिया कर्मों के अनुभाग को खण्डित करके लता और दारु समान दो स्थानों में स्थापित करता साथ अघातिया कर्मों के अनुभाग को जब नीम और कांजीर के समान दो भागों में स्थापित करता है तब उसके प्रायोग्यलब्धि होती है। ये चार लब्धियां भव्य के समान अभव्य के भी हो सकती हैं, यह कहा ही जा चुका है । उक्त चार लब्धियों के पश्चात् भव्य जीव के जो अधःकरण, पूर्वकरण और निवृत्तिकरणरूप उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होने वाले परिणामों की प्राप्ति होती है, इसे करणलब्धि कहा जाता है । यह अभव्य जीव के सम्भव नहीं है । इसकी प्राप्ति के अन्तिम समय में जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार यहां प्रसंगवश गुणस्थान के अनुसार विभिन्न प्रकृतियों के नामोल्लेखपूर्वक उनके बन्ध आदि की हीनता के क्रम को दिखलाया गया है ।
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चारित्रलब्धि - यह देश और सकल चारित्र के भेद से दो प्रकार की है। इनमें देशचारित्र को मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि प्राप्त करते हैं तथा सकलचारित्र को इन दोनों के साथ देशसंयत
१. देखिये अनेकान्त वर्ष ४ कि. १, पृ. ११३- २० में 'गोम्मटसार की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका, उसका कर्तृत्व और समय' शीर्षक लेख ।
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