________________
प्रस्तावना
भी प्राप्त करता है। मिथ्यादष्टि जब उपशमसम्यक्त्व के साथ देशचारित्र के ग्रहण के उन्मुख होता है तब वह जिस प्रकार सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए अधःप्रवृत्त आदि तीन करणों को करता है उसी प्रकार इस देशचारित्र की प्राप्ति के लिये भी उक्त तीन करणों को करता है और उन तीन करणों के अन्तिम समय में वह उक्त देशचारित्र को प्राप्त कर लेता है। परन्तु यदि उक्त मिथ्यादृष्टि वेदक (क्षायोपशमिक) सम्यक्त्व के साथ उक्त देशचारित्र के ग्रहण के उन्मुख होता है तो अधःप्रवृत्त करण और अपूर्वकरण इन दो परिणामों के अन्तिम समय में वह देशचारित्र को प्राप्त कर लेता है।
सकल चारित्र तीन प्रकार का है-क्षायोपशमिक, प्रौपशमिक और क्षायिक । इनमें जो जीव उपशमसम्यक्त्व के साथ क्षायोपशमिक चारित्र के ग्रहण में उद्यत होता है उसके उसकी प्राप्ति की विधि प्रथमोपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति के समान है। जो वेदकसम्यग्दृष्टि प्रौपशमिक चारित्र के ग्रहण में उद्यत होता है उसकी विधि भिन्न है। उसका निरूपण इस अधिकार में विशेषरूप से किया गया है (२०५.३६१) ।
आगे क्षायिकचारित्र की प्राप्ति में की जानेवाली क्रियायों का वर्णन विस्तार से किया गया है। इसी को क्षपणासार कहा जाता है।
गोम्मटसार के समान इस पर भी नेमिचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका और पण्डितप्रवर टोडरमलजी विरचित हिन्दी दीका भी है। संस्कृत टीका प्रौपशमिक चारित्र के विधान तक (गा. ३६१ तक) ही उपलब्ध है, आगे क्षायिक चारित्र के प्रकरण में वह उपलब्ध नहीं है। इससे पं. टोडरमलजी के द्वारा गा. ३६१ तक तो उक्त संस्कृत टीका के अनुसार व्याख्या की गई है और तत्पश्चात् प्राचार्य माधवचन्द्र विद्य द्वारा विरचित संस्कृत गद्यरूप क्षपणासार के आधार से वह की गई है। पं. टोडरमल जी ने इस क्षपणासार की रचना का निर्देश करते हुए यह बतलाया है कि उक्त ग्रन्थ प्राचार्य माधवचन्द्र द्वारा भोज नामक राजा के मंत्री बाहुबली के परिज्ञानार्थ रचा गया है। उक्त दोनों टीकात्रों के साथ यह हरिभाई देवकरण जैन ग्रन्थमाला कलकत्ता से प्रकाशित हया है। इसका उपयोग अधःप्रवृत्त करण और अपूर्वकरण गुणस्थान प्रादि शब्दों में हुअा है
८. त्रिलोकसार-यह भी पूर्वोक्त नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के द्वारा रचा गया है । इसमें । छह अधिकार हैं-लोकसामान्य, भवनलोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, वैमानिकलोक और नरतिर्यग्लोक । इनमें गाथाओं का प्रमाण क्रमश: इस प्रकार है-२०७+४२+५२+१४६+११०+४५८-१०१८ ।
(१) लोकसामान्य-जहाँ जीवादि छह द्रव्य देखे जाते हैं या जो उन छह द्रव्यों से व्याप्त है वह लोक कहलाता है। वह अनन्त आकाश के ठीक मध्य में अवस्थित है । वह अनादिनिधन होता हुआ स्वभावसिद्ध है-उसका कोई निर्माता नहीं है । आकाश दो प्रकार का है-लोकाकाश और अलोकाकाश । जितने आकाश को व्याप्त करके धर्म, अधर्म, आकाश और कालाणु अवस्थित हैं तथा जीव एवं पुद्गलों का गमनागमन जहां तक सम्भव है उतना आकाश लोकाकाश कहलाता है। उसके सब ओर जो अनन्त शुद्ध आकाश है वह अलोकाकाश माना गया है। उक्त लोक अधः, मध्य और ऊर्ध्व के भेद से तीन प्रकार का है। प्राधे मृदंग के ऊपर एक दूसरे मृदंग को खड़ा रखने पर जो उसका आकार होता है वैसा ही आकार इस लोक का है। इस प्रकार इस लोक का वर्णन करते हुए अनेक भेदरूप लौकिक और लोकोत्तर मानों, तीन वातवलयों, रत्नप्रभादि पृथिवियों और उनमें रहने वाले नारकियों का निरूपण किया गया है।
(२) भवनलोक-इसमें असुरकुमार-नागकुमारादि दस प्रकार के भवनवासी देवों की प्ररूपणा की गई।
(३) व्यन्तरलोक-इसमें किन्नर व किम्पुरुष आदि आठ प्रकार के व्यन्तर देवों की प्ररूपणा की गई है।
(४) ज्योतिर्लोक-यहां चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे इन पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों की प्ररूपणा करते हए प्रथमतः मध्यलोक के अन्तर्गत १६ अभ्यन्तर और १६ अन्तिम द्वीपों के नामों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org