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जन-लक्षणावली
जिसके आश्रय से बोध होता है उसका नाम अनुक्तावग्रह है । जैसे-चक्षु इन्द्रिय से गुड़ का ज्ञान होने पर उसके अनियत गुण स्वरूप जो रस का भी बोध होता है, तथा घ्राण इन्द्रिय से दही के गन्ध को जानकर उसी समय उसके खट्टे-मीठेपन का भी ज्ञान होता है, यही अनुक्तावग्रह है। मूलाचार की वृत्ति में प्राचार्य वसुनन्दी ने और प्राचारसार के कर्ता वीरनन्दी ने धवलाकार के लक्षण का अनुसरण किया है (देखो अनुक्त शब्द)।
__ तत्त्वार्थसूत्र की सुखबोधा वृत्ति में उसके लक्षण में कहा गया है कि किसी के द्वारा 'अग्नि को लामो' ऐसी आज्ञा देने पर 'खप्पर आदि से' अग्नि के ले जाने का जो स्वयं विचार उदित होता है, इसे मनुक्तावग्रह कहते हैं।
इन सब लक्षणों में सर्वार्थसिद्धि का लक्षण व्यापक है, कारण कि बिना कहे ही प्रसंग के अनुसार अभिप्राय से शब्दादि सभी विषयों का प्रवग्रह हो सकता है। तदनुसार ही तत्त्वार्थवार्तिककार ने श्रोत्र व चक्षु इन्द्रियों के प्राश्रय से उदाहरण देते हुए उसे स्पष्ट भी किया है । सुखबोधा वृत्ति का उदाहरण तो बहुत उपयुक्त प्रतीत होता है, वहाँ अग्नि लाने की आज्ञा देते हुए यह नहीं कहा गया है कि खप्पर से लाना या थाली आदि से । फिर भी उसे ले जाना वाला सोचता है कि उसका हाथों से या कपड़े आदि से ले जाना तो शक्य नहीं है, अतः वह खप्पर आदि से ले जाता है। यह अनुक्तावग्रह ही है। इससे सिद्धसेन गणी द्वारा दिये गये अव्याप्ति दोष की सम्भावना नहीं दिखती।
धवलाकार आदि के द्वारा स्वीकृत लक्षण भी उचित हैं। कारण यह कि लोकव्यवहार में प्राम प्रादि के गन्ध को ब्राण इन्द्रिय के द्वारा जानकर उसके अविषयभूत खट्टे या मीठे रस का बोध होता हमा देखा जाता है।
अनुपस्थापन-परिहार प्रायश्चित्त दो प्रकार का है-अनुपस्थापन परिहार और पारंचिक परिहार । प्रकृत अनुपस्थापन शब्द के विविध ग्रन्थों में अनेक रूप देखे जाते हैं। जैसे-तत्त्वार्थवातिक व प्राचारसार में अनुपस्थापन, बृहत्कल्पसूत्र में प्रणवठ्ठप्प (अनवस्थाप्य), धवला में प्रणवढा (अनवस्थक?) तथा चारित्रसार एवं अनगारधर्मामृत में अनुपस्थान ।
तत्त्वार्थवार्तिक में इसका लक्षण संक्षेप में इस प्रकार कहा गया है-हीनता को प्राप्त होकर प्राचार्य के पास में. अथवा अपने से हीन प्राचार्य के पास में जो प्रायश्चित ग्रहण किया जाता है, इसका नाम मनपस्थापन प्रायश्चित्त है। यहां परिहार प्रायश्चित्त के उक्त प्रकार से दो भेदों का निर्देश नहीं किया गया है।
षटखण्डागम की टीका धवला में उसके उपयुक्त दो भेदों का तो निर्देश किया गया है, पर वह किस प्रकार का अपराध होने पर स्वीकार किया जाता है, इसका निर्देश जैसे तत्त्वार्थवातिक में नहीं
वैसे ही यहां भी नहीं किया गया है । विशेषता यह है कि यहां उसका जघन्य काल छह मास और उत्कृष्ट बारह वर्ष प्रमाण कहा गया है। साथ ही यहां यह भी निर्देश किया गया है कि इस प्रायश्चित्त को स्वीकार करनेवाला साधु कायभूमि से-ऋषियों के आश्रम से-परे जाकर प्रतिवन्दना से रहित होता है-बाल मुनिजन भी यदि वन्दना करते हैं तो वह प्रतिवन्दना नहीं करता । वह गुरु को छोडकर अन्य साधुओं के प्रति मौन रखता हुआ उपवास, प्राचाम्ल, पुरिमार्थ, एकस्थान और निविकृति आदि के द्वारा अपने रस, रुधिर एवं मांस को सुखाता है।
चारित्रसार में उक्त अनुपस्थान प्रायश्चित्त को निजगण और परगण के भेद से दो प्रकार का लिडिट किया गया है। इनमें निजगणानुपस्थान प्रायश्चित्त किस प्रकार के अपराध पर ग्रहण किया ज, है इसका निर्देश करते हुए यहां कहा गया है कि जो प्रमाद से दूसरे मुनि के ऋषि छात्र को, पृत्व को, अन्य पाखण्डियों से सम्बन्धित चेतन अचेतन द्रव्य को, अथवा पर स्त्री को चुराता है; अन्य मनियों पर प्रहार करता है तथा इसी प्रकार का और भी विरुद्ध आचरण करता है उसे यह निजगणानपस्थान प्रायश्चित्त ग्रहण करना पड़ता है । यह प्रायश्चित्त उसके सम्भव है जो नौ-दस पूर्वो का धारक,
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