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जैन-लक्षणावली
यह कहा गया है कि ऐसा करने से केवल विपरीत अर्थ मात्र का बोध हो सकता था-हिंसादियूक्त वचन का बोध उससे नहीं हो सकता था। कारण यह कि 'मिथ्या' शब्द की प्रवृत्ति विपरीत अर्थ में ही देखी है । अत एव वैसा सूत्र करने पर भूतनिह्नव और अभूतोद्भावनविषयक वचन ही असत्य ठहरता, न कि हिंसादि का कारणभूत वचन । आगे भूतनिह्नव और अभूतोद्भावन के लिए जो 'प्रात्मा नहीं है' इत्यादि उदाहरण दिये गये हैं वे भाष्य जैसे ही हैं । क ऐसी ही आशंका सिद्धसेन गणी ने भी उक्त सत्र की टीका में उठाई है और उसके समाधान का अभिप्राय भी लगभग वैसा हो रहा है।
प्राचार्य अमृतचन्द्र के द्वारा अपने पुरुषार्थसिद्धयुपाय (६१-६६) में जो असत्य वचन का विवेचन किया गया है वह भाष्यकार के अभिप्राय से बहुत कुछ मिलता-जुलता है (देखिये 'असत्य' शब्द)।
अन्य विवाहकरण-यह ब्रह्मचर्याणुव्रत का एक अतिचार है। सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में सामान्य से दूसरे के विवाह के करने को उक्त अतिचार कहा गया है।
तत्त्वार्थभाष्य में इन पांच अतिचारों के नाम मात्र का निर्देश किया गया है।
हरिभद्र सूरि और सिद्धसेन गणी अपनी-अपनी टीका में उसे स्पष्ट करते हुए पर या अन्य शब्द से अपनी सन्तान को छोड़कर अन्य की सन्तान को ग्रहण करते हैं। तदनुसार अपनी सन्तान का विवाह करना तो अतिचार नहीं है, किन्तु कन्याफल की इच्छा से अथवा स्नेहवश किसी दूसरे की सन्तान का विवाह करने पर उक्त अतिचार अनिवार्य है। इनके पश्चाद्वर्ती प्रायः सभी ग्रन्थकारों ने-जैसे हेमचन्द्र सूरि, मुनिचन्द्र और पं. आशाधर आदि ने- इसी अभिप्राय को व्यक्त किया है।
अपरिगहीतागमन-यह भी एक उक्त ब्रह्मचर्यव्रत का अतिचार है । इन अतिचारों के विषय में ग्रन्थकारों में कुछ मतभेद रहा है। तत्त्वार्थसत्र के जिस सत्र में इन अतिचारों का नामनिर्देश किया गया है उसमें भी सर्वार्थसिद्धि और भाष्य के अनुसार कुछ भिन्न पाठ है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार वे पांच अतिचार ये हैं -परविवाहकरण, इत्वरिका-परिगृहीतागमन, इत्वरिका-अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीडा और कामतीव्राभिनिवेश । तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार वे ही अतिचार इस प्रकार हैं-परविवाहकरण, इत्वरपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीडा और कामतीव्राभिनिवेश । - पं. प्राशाधर ने सागारधर्मामृत (४-५८) में इन अतिचारों का निर्देश इस प्रकार किया हैइत्वरिकागमन, परविवाहकरण, विटत्व, स्मरतीवाभिनिवेश और अनंगक्रीडा। उन्होंने तत्त्वार्यसूत्र में निर्दिष्ट इत्वरिका-परिगृहीतागमन और इत्वरिका-अपरिगृहीतागमन इन दो का अन्तर्भाव एक 'इत्वरिकागमन' में करके विटत्व नाम के एक अन्य भी अतिचार को सम्मिलित कर लिया है। ... हरिभद्र सूरि और सिद्धसेन गणी श्रावक को लक्ष्य करके प्रब्रह्म की निवृत्ति दो प्रकार से बतलाते हैं- स्वदारसन्तोष से अथवा परपरिगृहीत स्त्री के सेवन के परित्याग से । तदनुसार स्वदारसन्तोषी अपनी पत्नी को छोड़कर शेष सभी स्त्रियों के सेवन से दूर रहता है। किन्तु दूसरा जो परपरिगृहीत स्त्री के सेवन का त्याग करता है वह अपनी पत्नी के सेवन का तो त्यागी होता ही नहीं है, साथ ही जो वेश्या
आदि दूसरों के द्वारा परिगृहीत नहीं है उनके उपभोग से भी वह निवृत्त नहीं होता है। विशेष इतना है कि यदि उक्त अपरिगृहीत वेश्या आदि ने किसी अन्य का कुछ काल के लिए भाड़ा ले लिया है तो तब तक वह परपरिगृहीत स्त्री के त्यागी को भी अनुपभोग्य होती है।
योगशास्त्र के कर्ता प्राचार्य हेमचन्द्र और सागारधर्मामृत के कर्ता पं. पाशाधर का भी लगभग यही अभिप्राय रहा है । प्रा. हेमचन्द्र ने इत्वराता (इत्वर-परिगृहीता) गमन और अनात्तागमन इन दो अतिचारों का निर्देश केवल स्वदारसन्तोषी के लिए किया है। शेष तीन अतिचार दोनों के लिए कहे गये हैं। १. इमो चातिचारी स्वदारसन्तोषिण एव, न तु परदारवर्जकस्य; इत्वरात्ताया वेश्यात्वेन अनात्तायास्त्व. नाथतयैवापरदारत्वात् । शेषास्त्वतिचारा द्वयोरपि । योगशा. स्वो. विव.
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