________________
प्रस्तावना
पर सर्वज्ञों को नमस्कार कर बन्ध, उदय और सत्त्व के व्युच्छेद के कहने की, पृ. ७३ पर जिनेन्द्रवचना
त का जयकार करते हए दष्टिवाद से उदधत करके जीव-गणस्थानगोचर कुछ इलोकों के कहने की, पृ. १४६ पर अरहंतों को नमस्कार करके अपनी शक्ति के अनुसार सप्तति के कहने की, तथा पृ. २२६ पर वीर जिनेश्वर को नमस्कार कर सामान्य (गुणस्थान) और विशेष (मार्गणाभेद) रूप से बन्ध. स्वामित्व के कहने की प्रतिज्ञा की गई है।
प्रस्तुत ग्रन्थ मा. दि. जैन ग्रन्थमाला समिति बम्बई से प्रकाशित हुना है। इसका उपयोग अकृतसमुद्घात, अगृहीतमिथ्यात्व, अनिवृत्तिकरणगुस्थान, अपूर्वकरण और असंयतसम्यग्दृष्टि आदि शब्दों में हुआ है।
१००. जंबूदीवपण्णत्ती-यह प्राचार्य पद्मनन्दी द्वारा रचा गया है। उनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी हो सकता है। इसमें १३ उद्देश व समस्त गाथाओं की संख्या २४२६ है । उद्देशक्रम से उसका विषयपरिचय इस प्रकार है
(१) उपोद्घात प्रस्ताव-यहाँ सर्वप्रथम पंचगुरुनों का वन्दन करते हुए प्राचार्यपरम्परा के अनुसार जिनदष्ट द्वीप-सागरों की प्रज्ञप्ति के कहने की प्रतिज्ञा की गई है। पश्चात् वर्धमान भगवानको नमस्कार करते हुए श्रुतगुरुनों की परिपाटी में प्रथमतः गौतम, सुधर्म (लोहार्य) और जम्बूस्वामी इन तीन अनुबद्ध केवलियोंका निर्देश किया गया है। तत्पश्चात् नन्दी मादि पाँच श्रुतके वलियोंसे लेकर सुभद्र प्रादि चार प्राचारांगधरों तक की परम्पराका निर्देश किया गया है। फिर प्राचार्यपरम्परा व आपूर्वीक अनुसार द्वीप-सागरों की प्रज्ञप्ति के कहने की प्रतिज्ञा की गई है।
आगे चलकर समस्त द्वीप-सागरों की संख्या का निर्देश करते हुए जम्बूद्वीपके विस्तारादि, उसको वेष्टित करनेवाली जगती और जम्बद्वीप के अन्तर्गत क्षेत्र-पर्वतादिकों की संख्या मात्रका निर्देश किया गया है। इस उद्देशमें ७४ गाथायें हैं।
(२) भरतरावतवर्षवर्णन-यहाँ भरतादि सात क्षेत्रों और उनको विभाजित करनेवाले हिमवान प्रादि छह कुलपर्वतों का निर्देश करते हुए भरत व ऐरावत क्षेत्रों और उनमें प्रवर्तमान अवसर्पिणी-उत्सपिणी कालोंकी प्ररूपणा की गई है। इसमें २१० गथायें हैं।
(३) पर्वत-नदी-भोगभूमिवर्णन-इस उद्देशमें कुलपर्वतों, मानुषोत्तर, कुण्डल एवं रुचक पर्वतों; नदियों और हैमवतादि क्षेत्रों में प्रवर्तमान कालों (भोगभूमियों) की प्ररूपणा की गई है। इसमें २४६ गथायें हैं।
(४) सुदर्शन मेरु–यहाँ मन्दर आदि पर स्थित जिनभवनों का वर्णन करते हुए तीर्थंकरों के जन्माभिषेक के लिये पानेवाले सौधर्मादि इन्द्रियों की विभूति की प्ररूपणा की गई है। इसमें २६२ गाथायें हैं।
(५) मन्दर-जिनवरभवन-यहां मन्दर आदि पर्वतोपर स्थित जिनभवनों का निरूपण करते हुए नन्दीश्वरद्वीप, कुण्डल पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत और रुचक पर्वतोंपर स्थित जिनभवनों की उक्त जिनभवनोंसे समानता प्रकट की गई है। आगे जाकर यष्टाह्निक पर्व में जिन पूजन के लिये पानेवाले १६ इन्दोंकी शोभा को दिखलाते हुए उनके द्वारा किये जानेवाले पूजामहोत्सव की प्ररूपणा की गई है। यहाँ गाथाओं की संख्या १२५ है।
(६) देवकुरु-उत्तरकुरु-यहां विदेहक्षेत्रगत देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्रों के विस्तारादि तथा उनमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्यादिकी प्ररूपणा की गई है । इसमें १७८ गाथाये हैं।
(७) विदेह वर्ष--यहाँ वनखण्डों, देवारण्यों, वेदिकाओं, विभंगानदियों, वक्षारपर्वतों तथा कच्छा विजय और उसमें स्थित क्षेमा नगरी (राजधानी) का वर्णन किया गया है। इसमें १५३ गाथायें हैं।
(८) पूर्व विदेहविभाग-इसमें पूर्वविदेहस्थ सुकच्छा प्रादि विजयों और उनमें स्थित क्षेमपूरी १. उक्त ग्रन्थ की प्रस्तावना पृ. १४२-४३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org