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प्रस्तावना
धर्मबिन्दु की टीका, योगशास्त्र, भगवती आराधना की मूलाराधनाद. टीका और सागारधर्मामृत' आदि में व्रत की शिथिलता, मलिनता अथवा उसके एकदेश भंग को अतिचार कहा गया है।
वर्तमान में उक्त अतिचार शब्द प्रायः व्रत की मलिनता या उसके देशतः भंग अर्थ में रूढ है। सम्यक्त्व और अहिंसादि १२ व्रतों में से प्रत्येक व्रत के ५-५ अतिचारों की व्यवस्थित प्ररूपणा सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध होती है। इससे पूर्व के किसी अन्य ग्रन्थ में वह देखने में नहीं पायी । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्रप्राभूत में बारह प्रकार के देशचारित्र की प्ररूपणा की है, पर वहाँ किसी भी व्रत और सम्यक्त्व के अतिचारों की सूचना नहीं की गई। वहाँ एक विशेषता यह है कि देशावकाशिकव्रत का न तो तीन गुणवतों में उल्लेख किया गया है और न चार शिक्षाव्रतों में भी । चार शिक्षाव्रतों में सामायिक, प्रोषध और अतिथिपूजा के साथ सल्लेखना को ग्रहण किया गया है (२४-२५) ।
यद्यपि उवासगदसानो में प्रानन्द उपासक को लक्ष्य करके सम्यक्त्व व स्थूलप्राणातिपातविरमण प्रादि प्रत्येक ब्रत के ५-५ अतिचारों का निर्देश किया गया है पर वह तत्त्वार्थसूत्र का अनुसरण है अथवा इसके अनुसार तत्त्वार्थसूत्र में उनका विवेचन किया गया है, यह कहा नहीं जा सकता।
सोमदेव सूरि ने अपने उपासकाध्ययन में प्रायः इन अतिचारों का निर्देश तो किया है, पर उन्होंने उनके लिए अतिचार या उसके पर्यायवाची किसी अन्य शब्द का भी प्रयोग नहीं किया, और न उनकी संख्या (सल्लेखना को छोड़कर) का भी निर्देश किया है। केवल उन्हें विवक्षित व्रत के निवर्तक या घातक घोषित किया है।
अधःकर्म, प्राधाकर्म-सामान्य रूप से ये दोनों शब्द समानार्थक हैं। पिण्डनियुक्तिकार ने (गाथा ६५) इसके ये चार नाम निर्दिष्ट किये हैं-प्राहाकम्म (प्राधाकर्म), अहेकम्म (अधःकर्म), पायाहम्म (प्रात्मघ्न) और अत्तकम्म (प्रात्मकर्म)।
प्रा. भूतबलि षट्खण्डागम में इसका लक्षण इस प्रकार करते हैं-उपद्रावण, विद्रावण, परितापन और प्रारम्भ के निमित्त से जो सिद्ध होता है उसे प्राधाकर्म कहते हैं। - मूलाचार (६-५) में लगभग इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि छह काय के प्राणियों के विराधन और उपद्रावण प्रादि से जो निष्पन्न है. तथा स्वकृत अथवा परकत अपने को प्राप्त है उसे प्राधाकर्म जानना चाहिए । 'स्वकृत व परकृतरूप से अपने को प्राप्त' इतना मात्र यहां विशेष जोड़ा गया है।
पिण्डनियुक्ति (६७) में इसका लक्षण इस प्रकार निर्दिष्ट किया गया है-जिस साधु के निमित्त अपनी चित्तवृत्ति के अनुसार प्रौदारिक शरीरवाले जीवों का उद्दवण (अपद्रावण)-प्रतिपात वजित पीड़ा-की जाती है और त्रिपातन-मन, वचन व काय इन तीन का अथवा देह, प्रायु और इन्द्रिय इन तीन का विनाश या उनसे वियुक्त किया जाता है; उसे प्राधाकर्म कहते हैं। आगे यहां (६६) भाव आधाकर्म का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि साधु चूंकि सयमस्थानकाण्डकों, लेश्या और स्थिति सम्बन्धी विशुद्ध एवं विशुद्धतर स्थानों में वर्तमान अपने भावको अधः करता है-हीन और हीनतर स्थानों में स्थापित करता है-अतएव इसे भाव अधःकर्म कहा जाता है। यह विवेचन भी बहुत कुछ अंश में षट्खण्डागम और मूलाचार जैसा ही है।
भगवती आराधना में वसति के प्रकरण में गा. २३० की टीका में अपराजित सूरि के द्वारा प्रकृत २. पं. आशाधर ने अपने सागारधर्मामत की स्वोपज्ञ टोका में जो १२ व्रतों के अतिचारों का विशेष
स्पष्टीकरण किया है उसका आधार प्रायः हेमचन्द्रसूरि का योगशास्त्र और उसका स्वोपज्ञ विवरण रहा है। (विशेष के लिए देखिये अनेकान्त वर्ष २०, पृ. ११६.२५ व १५१-६१ में 'सागारधर्मामृत
पर इतर श्रावकाचारों का प्रभाव' शीर्षक लेख।) २. उवासगदसाग्रो (पी. एल. वैद्य, फर्गुसन कालेज पूना) १, ४४-५७, पृ. ६-१२. ३. देखिए श्लोक ३७०, ३८१, ४१८, ७५६, ७६३, ८५१ और ६०३ प्रादि । ।
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