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जन-लक्षणावली
विरचित ये दो टीकायें भी हैं। इनके अतिरिक्त हरिभद्र सूरि विरचित टीका पर मलधारगच्छीय मा. हेमचन्द्र (विक्रम की १२ वीं श.) विरचित एक टिप्पण भी है। जिस भाष्य का ऊपर उल्लेख किया गया है वह संक्षिप्त है, उसकी सब गाथायें विशेषावश्यक भाष्य में सम्मिलित हैं । नियुक्तियों की गाथा संख्या १४१७ (प्रतिक्रमणान्त) और भाष्यगाथासंख्या २२७ है। उक्त आवश्यकसूत्र नियुक्ति और हरिभद्र विरचित वृत्ति के साथ प्रथम सामायिक अध्ययन तक पूर्व भाग के रूप में तथा २ से ४ अध्ययन तक दूसरे भाग के रूप में प्रागमोदय समिति बम्बई द्वारा प्रकाशित हया है। वही नियुक्ति और मलय. गिरि विरचित टीका के साथ नि. गा. ५४२ तक पूर्व भाग के रूप में तथा नि. गा. ५४३ से ८२६ तक द्वि. भाग के रूप में आगमोदय समिति बम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है। नि. गा. ८३०-१०६६ तक तृतीय भाग के रूप में देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड सूरत द्वारा प्रकाशित किया गया है। इन तीन भागों में सामायिक और चतविशतिस्तव ये दो ही अध्ययन पा सके हैं। प्रागे के भाग हमें उपलब्ध नहीं हो सके। म. ग. हेमचन्द्र विरचित टिप्पणक सेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड बम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग निम्न शब्दों में हुआ है
मूल-अङ्गारकर्म आदि। नि.---अनुयोग, अनुसन्धना, अर्थसिद्ध, पागमसिद्ध, प्राप्रच्छना और आवश्यकनियुक्ति प्रादि । भा.-उत्तरप्रयोगकरण प्रादि । चूर्णि-अक्षीणमहानसिक और अनुमान आदि । ह. वृत्ति-अङ्गारकर्म, अनुमान, अनुयोग, अपददोष, अपरिगृहीतागमन और अप्रत्याख्यान
क्रोध आदि । म. वृत्ति-अक्षीणमहानस और इत्वरपरिहारविशुद्धिक आदि । हे. टिप्पण-अधोलोक आदि ।
. दशवकालिक-इसके रचयिता आचार्य शय्यम्भव हैं । इसके ऊपर प्राचार्य भद्रबाहु द्वितीय विरचित नियुक्ति और प्राचार्य हरिभद्र विरचित टीका है। कालविषयक निक्षेप के प्रसंग में नियुक्तिकार के द्वारा कहा गया है कि सामायिक (अावश्यकसूत्र का प्रथम अध्ययन) के अनुक्रम से वर्णन के लिए चूंकि यह विगत पौरुषी में शय्यसम्भव के द्वारा रचा गया है-पूर्वगत से उद्धृत किया गया है, अतएव इसे दशकालिक कहा जाता हैं। आगे उपर्युक्त शय्यसम्भव की वन्दना करते हुए यह निर्देश किया गया है कि मैं (नियुक्तिकार) मनक नामक पुत्र के जनक उन शय्यम्भव गणघर-ज्ञान-दर्शनादिरूप धर्म-गण के धारक-की वन्दना करता हैं जिन्होंने जिनप्रतिमा के दर्शन से प्रतिबोध को प्राप्त होकर दशकालिक का उद्धार किया है। इसके टीकाकार हरिभद्र सूरि ने इस सम्बन्ध में निम्न कथानक प्रस्तुत किया है
अन्तिम तीर्थकर श्री वर्धमान स्वामी के शिष्य गणधर सुधर्म उनके तीर्थ के स्वामी हुए। तत्पश्चात् उनके भी शिष्य जम्बस्वामी और उनके शिष्य प्रभव हुए। प्रभव को एक समय यह चिन्ता हुई कि भविष्य में मेरा गणघर कौन होगा। इसके लिए उन्होंने अपने गण और संघ में सब ओर दृष्टि डाली, पर उन्हें वहां कोई इस परम्परा का चलाने वाला नहीं दिखा । तब उन्होंने गृहस्थों में देखा । वहाँ उन्हें राजगृह में यज्ञ कराने वाला शय्यम्भव ब्राह्मण दिखा। यह देखकर उन्होंने राजगृह नगर में आकर दो साधूओं को भिक्षार्थ यज्ञस्थल में जाने को कहा। साथ ही उन्होंने यह भी सूचना की कि यदि कोई तुम्हें रोके तो तुम कहना "खेद है कि तत्त्व को नहीं जानते"। वहां उनके पहुँचने पर वही हुआ और उन्होंने भी वैसा ही कहा । उसे द्वार पर स्थित शय्यम्भव ने सुना । वह सोचने लगा कि शान्त तपस्वी असत्य १. सामाइयअणुकमग्रो वण्णे विगयपोरिसीए ऊ ।
णिज्जढं किर सेज्जंभवेण दसकालियं तेण ।। नि. १२. २. सेज्जंभवं गणधरं जिणपडिमादसणेण पडिबुद्धं ।
मणगपिअरं दसकालियस्स णिज्ज हगं वंदे ॥ नि. १४.
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